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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
( 10 ) प्रायः मध्य य अन्त के व्यंजन क्, ग्, च, ज्, त्, द्, प्, य् और व् का लोप हो जाता है। यथा-लोक-लोअ आदि । (11) संयुक्त व्यंजन को सामान्यतया सरल कर दिया जाता है । (उसमें से एक लुप्त हो जाता है) द्वित्व व्यंजन घुल-मिल जाते हैं । समवर्ती व्यंजन एक ही तरह के व्यंजन में परिवर्तित हो जाते हैं। अर्थात् एक को लुप्त कर दूसरे व्यंजन को द्वित्व कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थिति में पहले वाला हस्व स्वर दीर्घ हो जाता है - कम्मण - कामण या स्वर भक्ति (स्वरेण भक्तिः स्वर भक्तिः ) होती है । वर्ष-वरिस; कभी दीर्घ स्वर को हस्व कर दिया जाता है - चूर्ण- चुण्ण, सिरिपालोव्व - सिरिपालुव्व ।
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( 12 ) पंचमी एक वचन - हितो का परिवर्तन त्तो, जो, उ, हि में होता है; त्तो को छोड़कर सभी जगह अ को दीर्घ हो जाता है; हि के आगे ब० व० अ का ए हो जाता है- जिणाहि - जिणेहि, जिनात् - जिणाहिंतो, जिणेहिन्तो आदि ।
( 13 ) पुल्लिंग और नपुंसक लिंग के संज्ञा शब्दों के अन्त तृ का सामान्यतया अर या यर होता है - पितृ -पियर, भ्रातृ-भायर ।
(14) प्राकृत में आत्मनेपद का प्रयोग नहीं होता; केवल परस्मैपद ही होता है, हेमचन्द्र ने आत्मने पद के कुछ रूपों के चिह्न दिये हैं- से, न्ते, इरे आदि ।
जैन महाराष्ट्री की विशेषताएं
जैन श्वेताम्बरों की पवित्र पुस्तकों की भाषा - मुख्यतया आगम की भाषा- जैन महाराष्ट्री प्राकृत कहलाती है। महाराष्ट्री के साथ-साथ लोग जैनों द्वारा काम में लाई गई दोनों बोलियों का निकटतम सम्बन्ध मानते हैं । हरेमन याकोबी 2 ने इन दोनों बोलियों को जैन - महाराष्ट्री और जैन प्राकृत के नाम से अलग-अलग किया है। उन्होंने टीकाकारों और कवियों की भाषा को जैन महाराष्ट्री नाम से अभिहित किया है और जैन प्राकृत को उस भाषा के नाम