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प्राकृत
ध होता है वहीं महाराष्ट्री में ध को ह होता है । उदाहरण- सं० अथ - शौ० अध-महा० अह, सं० मनोरथ - शौर० मणोरध - महा० मणोरह, सं० कथम् - शौ० कधम - महा० कहम, सं० नाथ - शौ० णाध - महा०
णाह ।
महाराष्ट्री की कुछ मुख्य विशेषताएँ
(1) महाराष्ट्री में कहीं-कहीं ऊष्म व्यंजन ध्वनि के स्थान पर 'ह' जो जाता है, यथा- पाषाण - पाहाण, अनुदिवसं - अणुदिअहं ( यहाँ द के लोप न होने का कारण है कि-अनु और दिवस शब्द पृथक-पृथक समझे गए) । इस कारण इसे स्वर मध्यग नहीं समझा
गया ।
(2) अपादान एक वचन में साधारणतया 'अहि' प्रत्यय लगता है; यथा - दूराहि ( दूरात्) ।
(3) अधिकरण एक वचन के रूप 'म्मि' अथवा 'ए' के योग से बनते हैं यथा - लोए अथवा लोअम्मि - लोकस्मिन् ।
(4) कृ धातु के रूप वैदिक भाषा के समान निष्पन्न होते हैं; यथा - कुणइ - कृणोति (वैदिक) ।
(5) 'आत्मन्' का प्रतिरूप महाराष्ट्री प्राकृत में 'अप्प' होता
है ।
(6) क्रिया के कर्म वाक्य का य प्रत्यय - इज्ज होता है । यथा- पृच्छ्यते - पुच्छिज्जइ; गम्यते -गमिज्जइ ।
(7) पूर्वकालिक क्रिया का रूप 'ऊण' प्रत्यय के योग से बनता है । यथा - पुच्छिऊण (सं० पृष्ट्वा) ।
(8) बिना किसी कारण के आदि स्वर लुप्त हो जाता है— अरण्यम् - रण्ण, अपि-पि, वि।
(9) कभी-कभी अय और अव की जगह ए और ओ होता है- स्थविर - थेर, अवग्रह - ओग्गह ।