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प्राकृत
प्राकृत जैसे कि अशोक के शिलालेख और ऐसे कुछ नमूनों को छोड़कर उत्तरकालीन प्राकृत साहित्य में विशेषतः एक ही तरह की प्राकृत हमको मिलती है। शिष्ट संस्कृत साहित्य के नमूने पर ही अधिकतर शिष्ट प्राकृत साहित्य उपलब्ध होते हैं। प्राकृत साहित्य की शैली सर्वत्र एक ही तरह की है, चाहे वह पूर्व की हो या पश्चिम की अथवा दक्खिन की ही क्यों न हो। सर्वत्र एक ही शिष्ट सामान्य शैली की प्रक्रिया हमें प्राप्त होती है। प्राकृत का अन्तिम छोर है-अपभ्रंश काल। यह नव्य भारतीय आर्य भाषाओं के उद्गम का सूचक है। किन्तु इस अपभ्रंश साहित्य में भी आधुनिक न० भा० आ० भाषाओं की तरह पूरब और पश्चिम शैली का भेद नहीं पाया जाता।
__ इस प्रकार हम निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्राकृत वस्तुतः जनता की मूल भाषा थी। इसी को सेठ हरगोविन्द दास ने पाइय सद्द महण्णवो की भूमिका में प्राकृत की व्याख्या इसी तरह की
है
प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम् या
प्रकृतीनां साधारणं जनानामिदं प्राकृतम्।
उन्होंने लक्षणा की अपेक्षा मुख्यार्थ पर ही विशेष बल दिया है। अकृत्रिम स्वादुपदां जैनी वाचमुपास्महे (हेम० काव्यानुशासन)। श्री सेठ ने अपने मत की पुष्टि में नमिसाधु, सिद्धसेन वाक्पतिराज' और राजशेखर' को भी उद्धृत किया है। विचार करने से प्राकृत के विषय में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल पाते हैं---
(1) प्राप्त शिलालेख गिरनार, जौगड और मानसेर से कम से कम दो बोलियों का पता चलता है जिसमें एक तो मगध की मुख्य मध्य बोली है। यहीं से उसका उद्भव हुआ। यह वैदिक काल की प्रारम्भिक प्राकृत या प्रान्तीय बोलियों में से एक थी।
(2) प्राकृत में बहुत से ऐसे देशी शब्द हैं जो न तो परिनिष्ठित संस्कृत में हैं और न वैदिक संस्कृत में ही प्राप्त होते हैं। वे वैदिक