________________
भारतीय आर्य-भाषा
खास नियमों में भिन्नता रखती है। वैदिक भाषा में उच्चारण ध्वनि पर विशेष ध्यान दिया गया । वैदिक मन्त्रों के उच्चारण में इसका विशेष ख्याल रखा जाता था । पाणिनि शिक्षा में कहा गया है:
15
मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग्वजो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्र शत्रुः स्तरतोऽपराधात् । । वैदिक भाषा में कभी शब्द ध्वनि भी परिवर्तित हो जाती है-ल-ड में भी बदली है- अग्निमीळे > अग्निमीले । गोनाम् तथा गवाम् दोनों रूप मिलता है। (अष्टाध्यायी 7-1-57); कर्ता ब० व० में- असस् का जनासः, ब्राह्मणासः और अस् का विसर्ग देवाः, ब्राह्मणाः । कर्म के एक वचन में 'उ' का दो रूप होता है - तन्वम् > तनुवम्, प्रभ्वम् > प्रभुवम् (अष्टा० 6/4 / 86 ) : इसके विपरीत परवर्ती संस्कृत में इन् या ता प्रत्यय पाया जाता है। तृतीया एक वचन में प्रायः आ अथवा या जोड़ दिया जाता है - उरुया, मध्वा ( उरुणा और मधुना रूप के रहते हुए भी) वाहवा और नावया (वाहुना और नावा की जगह पर), स्वप्नया (स्वप्नेन के रहते हुए भी) इसी तरह बहुत से उदाहरण हैं (अष्टा० 7/1/39); तृतीया बहुवचन के अन्त में अत् का भिस् या एभिस् में परिणत हो जाता है - रुद्रेभिः पूर्वेभिः और कभी-कभी एस भी पाया जाता है - रुद्रेः (अष्टा० 7/1/10)। यह ध्यान देने की बात है कि भिस् या एभिस् तृ० ब० व० का रूप है। कभी-कभी षष्ठी एक वचन का प्रत्यय छोड़ दिया जाता है जैसा कि परमे व्योमन ( व्योम्नि के रहते हुए भी) और यह कभी आ में भी बदल जाता है नाभउ के लिए नाभा - प्रयोग कर्ता कारक ब० व० शब्द नपुंसक लिंग में अ का आ में परिवर्तन-जैसे कि - 'विश्वानि धनानि के लिए 'विश्वा धनानि पाते हैं । वेद मन्त्रों में जनयिता के लिए जनिता, शमयिता के लिए शमिता पाते हैं (अष्टा० 6/4/53, 54 ); विद्भः के लिए विद्भ, एव के लिए एवा (अष्टा० 6/3/136); आत्मना के लिए त्मना, अष्टपदी के लिए अष्टापदी आदि बहुत से उदाहरण हैं। इस तरह के बहुत से उदाहरण वैदिक भाषा की विशेषता या गुण वैदिक प्रकरण में पाणिनि ने
T