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द्वादश अध्याय
धातु साधित संज्ञा ( कृदन्त प्रकरण)
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि अपभ्रंश में भूतकाल के लिये तिङन्त लकारों का प्रयोग समाप्तप्राय सा हो गया था । इसका स्थान निष्ठा कृदन्त ने ग्रहण किया। संस्कृत में निष्ठा 'क्त' एवं 'क्तवतु' दो प्रत्यय होते थे। क्त प्रत्यय का प्रयोग भाव कर्म में होता था और क्तवतु का कर्तृ में। भाषा में सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण अपभ्रंश में 'क्त' प्रत्यय का विकसित रूप ही ग्रहण किया गया। फलतः वाक्य गठन भाव कर्मणि होने लगा कृदन्त द्रव्य प्रधान होने के कारण विशेषण विशेष्य का अनुसरण करता है। किन्तु अपभ्रंश में लिंगों की अव्यवस्था होने के कारण कभी-कभी रूपों में लिंग भेद करना कठिन सा हो जाया करता है । फलतः कभी-कभी पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग के रूपों में समता सी आ जाया करती है। सच तो यह है कि सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण निष्ठा रूपों से भी लिंग भेद विनष्ट सा हो गया। फिर भी उसका कहीं-कहीं लिंग के अनुसार रूप भी पाया जाता है । 'क्त' का विकसित रूप 'अ' सामान्यतः अपभ्रंश में पाया जाता है । इसी 'अ' का कभी 'आ' भी हो जाता है- भल्ला हुआ जुमारिआहेम० । इन कृदन्त अ, आ, के उच्चारण में य भी श्रुति गोचर होने लगा । उदाहरण-गय, किय, वारिया आदि । अकार का कभी-कभी 'उ' रूप भी मिलता है-दूरुड्डाणें पडिउ खलु (हेम० ), पिउ दिट्ठउ सहसत्ति इत्यादि । 'अ' का 'उ' होना अपभ्रंश में 'उकार बहुला' की प्रवृत्ति है । कभी-कभी उकार के पूर्व य भी दृष्टिगोचर होता