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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
___45. इया <-उ +-य आ (स्त्री०)-अज्जविया < ऋज, लावीया, लहुइ <-लहुईभूया (लघ्वीभूता) मद्दचिया < मृदु, सोचविया < * शोचव्या < शुचि।
अपभ्रशं में इन रचनात्मक प्रत्ययों के अतिरिक्त और भी प्रत्यय हो सकते हैं जो कि प्राकृत में प्रचलित थे। किन्तु अपभ्रंश मे शनैः-शनैः प्रत्ययों के प्रयोग में भी सरलीकरण होता गया। ध्वनि परिवर्तन के कारण बहुत से प्रत्यय घिसकर एकरूपता में परिवर्तित हो गये। जैसा कि पं० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि इल्ल, उल्ल, ड आदि स्वार्थिक प्रत्यय अपभ्रंश में बहुत पहले आ गये थे। कभी-कभी-एक, दो और तीन प्रत्ययों का योग भी मिलता है :
साभि सरोसु सलज्जु पिउ, सीमा संधिहि वासु। पेक्खिवि बाहुबलुल्लडा, धण मेल्लइ नीसासु।।
हेमचन्द्र यहाँ 'बलुल्लडा' में बल शब्द के 'उल्ल' और 'ड' दो स्वार्थिक प्रत्यय जुटे हुए हैं। परन्तु अर्थ में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है। ड का उदाहरण दोषड़ा (हेम०)। इसी से हिन्दी में हियरा, जियरा, गहेलड़ी आदि बना है।
हेमचन्द्र की अपभ्रंश के कुछ प्रमुख उपसर्ग
1. नर्थक-अ-< प्रा० भा० आ०-अन, अ।
अगलिअ, अचिंतिअ, अडोहिअ, अप्पिअ, अलहतिअ, अबुहअचलु, असुद्धउ, असरणा, असारु, हे० 8/4/396-असइहिं (असतीभिः), 4/396-अकिआ (अकृत) 4/442,7-असठ्ठलु (असाधारणः), 4/ 422-अपूरय (अपूर्ण), 4/440–असेसु, 4/423-अचिन्तिय (अचिन्तित)।
(2) अणु < प्रा० भा० आo-'अनु'
8/4/422,9-अणुरत्ताउ (अणुरक्ताः ); 4/428-अणुदियहु (अनुदिवसाः)