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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
8 /4/416 कुत: ( हिन्दी कहाँ से ) शब्द की जगह कउ एवं कहन्ति प्रयोग होता है जो कि स्थान वाचकता का बोधक है ।
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8/4/419 निश्चयवाची किल के स्थान पर किर या अहवइ का प्रयोग होता है। दिवा के स्थान परं दिवे, सह के स्थान पर सहुं का प्रयोग होता है। संस्कृत में सह का प्रयोग सदा तृतीया विभक्ति के साथ होता था । यह सह स्वतः साथ अर्थ व्यक्त करता था । अपभ्रंश 'सहुं' से ही हिन्दी 'से' की उत्पत्ति हुई है। निषेधात्मक 'नहि' के स्थान पर अपभ्रंश नहिं का प्रयोग होता है ।
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8/4/420 व्यतीत काल को बताने वाला पश्चात् के स्थान पर 'पच्छइ', सम्बन्ध द्योतक एवमेव के स्थान पर 'एम्वइ', निश्चय बोधक एव के स्थान पर 'जिं, काल बोधक इदानीं के स्थान पर 'एम्वहिं', संबन्ध द्योतक प्रत्युत के स्थान पर पच्च लिउ, एतस् के एत्तहे प्रयोग होता है ।
8/4/421 विषण्ण के स्थान पर 'वुन्न', उक्त के स्थान पर वृत्त तथा वर्तमान के स्थान पर वुच्च का प्रयोग होता था ।
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8/4/422 कुछ ऐसे देशी शब्द हैं जो कि संस्कृत शब्दों के स्थान पर प्रयुक्त होते थे । उनमें से कुछ शब्द तो अव्यय के हैं तथा कुछ संज्ञा के हैं । वे शब्द भी दोहों में अव्यय की तरह प्रयुक्त हुए हैं। संस्कृत का शीघ्र ' हिन्दी में 'जल्दी' के अर्थ में प्रयुक्त होता है। उसके स्थान पर अपभ्रंश में 'बहिल्ल' देशी का प्रयोग होता था -- -- अन्नु वहिल्लउ जाइ। ‘कलह अर्थ को बताने वाले झकट के स्थान पर 'घंघल' शब्द का प्रयोग होता था - जिवँ सुपुरिस तिवँ घंघलइं । न छूने योग्य 'संसर्ग' के स्थान पर 'विट्ठालु' का प्रयोग होता था - 'तह संखहं विट्ठालु परु' । भय के स्थान पर 'द्रवक्क' एवं आत्मीय शब्द के स्थान पर 'अप्पण' शब्द प्रचलित था । यह सर्वनाम अप्प की भाँति है । दृष्टि के स्थान पर - 'द्रहि' का प्रयोग होता था । गाढ के स्थान पर 'निच्चट्ट', 'साधारण' के स्थान पर 'सड्ढल' एवं निषेधवाची 'अ' उपसर्ग लगाने पर असड्डल का प्रयोग होता था । कौतुक के स्थान पर 'कोडढ'; क्रीडा के