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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
अपभ्रंश तुहुँ से हिन्दी तू रूप परिवर्तित हुआ है। तुहुँ > तुउँ, > तू > तू :
मइँ भणिय तुहँ (हेम०) तु करसि (उक्ति०) की तूं मीत मन चित बसेरू (पद्मा०) तू क्या कर रहा है। (खड़ी बोली)
मारवाड़ी में तूं, यूँ तथा गुजराती में तु रूप मिलता है। पुरानी राजस्थानी में तउँ और तू, तूंअ तूह रूप मिलता है। खड़ी बोली के ब० व० के तुम की उत्पत्ति इसी तुम्हे, तुम्ह से बनी है।
(2) उत्तम पुरूष की भाँति यहाँ द्वि०, तृ० एवं सप्तमी के एक वचन में पई, तई रूप होता है। संस्कृत त्वया + एन > तई - तइ रूप होता है। अधिकरण में त्वयि से भी तइ होना अधिक संभव प्रतीत होता है। पइं, तइं < * त्वयेन से भी हो सकता है। डॉ० तगारे ने प्रा० भा० आ० त्व से प की उत्पत्ति मानी है जिससे कि पइं का होना अधिक सरल है। द्वितीया के बहुवचन में प्र० ब० व० की भाँति रूप होता है। इन दोनों रूपों में एकरूपता सी अपभ्रंश से लेकर न० भा० आ० तक में दीख पड़ती है। तृ० ब० व० में तुम्हेहिँ प्रा० तुम्हेहिँ का ही रूप सुरक्षित है। तुम्हेहि < तुष्म + भिः सप्तमी बहुवचन में तुम्हासु रूप होता है। प्राकृत कई रूपों में तुम्हासु रूप भी पाया जाता है। वही रूप अपभ्रंश में भी सुरक्षित है। तुम्हासु < * तुष्मासु = युष्मासु।।
(3) पंचमी एवं षष्ठी के एकवचन में तउ, तुज्झ, एवं तुध्र रूप होता है। संस्कृत तव के व का उ सम्प्रसारण होकर तउ रूप होगा; प्राकृत में यह रूप नहीं पाया जाता। तुज्झ का विकास 'मुज्झ' के सादृश्य से प्रभावित है। डॉ० तगारे1 ने 'मध्य' के मिथ्या सादृश्य पर निर्मित पालि रूप तुह्य > तुज्झ > तुज्झु > तुज्झ के क्रम से विकसित माना है। अपभ्रंश में इसके तुज्झ, तुज्झु, तुज्झइ, तुज्झुं रूप मिलते हैं। 'तुज्झे' वस्तुतः 'तुज्झ' (हि० तुझे) का तिर्यक रूप है। तेस्सि तोरि ने तुज्झु की उत्पत्ति < * सं० तुह्यं से मानी है। पुरानी राजस्थानी में इसी