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रूप विचार
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जिसके हुंकार से। तुम्हहं केरउं धणु (हे० 8/4/373), तुम्हें हिँ अम्हें हिँ जं किअउँ (हे० 8/4/378)। पाहड़ दोहा में भी सम्बन्ध कारक परसर्ग के अर्थ में केरउ का प्रयोग हुआ है-कम्महं केरउ भावडउ जइ अप्पाण भणेहि (कर्मों के भाव को ही यदि तू आत्मा कहता है-पा० दो०. 36)। स्वयंभू कृत पउम चरिउ में भी केरए का प्रयोग विविध स्थलों पर पाया जाता है। वहाँ भी यह सम्बन्ध कारक के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। 6 135, 983, केरउ, 438, 533-केरि, 1117-ताह मि केराइम । भविसत्त कहा में केरउ का प्रयोग पाया जाता है-तउ केरउ (भ० क० 75,7, 125, 10) सरवहे केरउ (भ० क० 189,5) जसहर चरिउ-रायहो केरि 1-9-2| रावण-रामहो केरि (पुष्पदन्त महापुराण 69-2-11)।
पूर्वोक्त उद्धरणों से पता चलता है कि केरअ, केर केर (प्रा० भा० आ०-कार्य) का प्रयोग परसर्ग षष्ठी विभक्ति के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। परवर्ती अपभ्रंश अवहट्ट में भी इस. परसर्ग का प्रयोग मिलता है। उक्ति व्यक्ति प्रकरण में इसके प्रयोग प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। थामें कर स्तम्भस्य (47/12) रा-कर सागर राज्ञः सागरः (21/14) मित-कर (28/18-पंचमी के अर्थ में), वड करि डाल=वट की शाखा में (35/21), तेहु-करि सभा = उन लोगों की सभा में (10/15), ककरे घरे, मधि, पुनवाते-करि भोजा (सप्तमी, 36-3), वणेइ-कर (14-20) सम्प्रदान के भाव में। इसके कई प्रकार के रूप कीर्तिलता, वर्णरत्नाकर और प्राकृत पैंगलम् में भी पाये जाते हैं। लोचन केरा बल्लहा, ताकेरा बहुपिन, पअकरे आकारे, करेओ डप्प चूरेओ आदि (कीर्तिलता), मानुष क मुहराव (47अ) आदित्य क किरण (49 अ-वर्णरत्नाकर), ताका पिअला (2, 97) देवक लिक्खिअ (2,101) आदि प्राकृत पैंगलम् में इसी केर का घिसा हुआ रूप है। पुरानी राजस्थानी में भी अपभ्रंश केरउ का विकसित रूप (तेस्सितोरि $73) पाया जाता हैजाणे गिरिवर-केरउ श्रृंग = गिरिवर के श्रृंग जितना
___ (एफ0 591, 2/3) तूं कवियण-जण केरी माया = तू कवियों की माता है
(एफ० 7/15,1/3)