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रूप विचार
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खेलए (विद्यापति 38 ए), मासु हडहि - सञो खएलक (विद्यापति 15 ब), उक्ति” व्यक्ति प्रकरण भी 'सउँ' रूप मिलता है-दूजणे सउ सब काहु तूट (37/23) समम कस्यापि त्रुट्यति - घिए साकर सेउँ सातु (21/31/22/1 ) = घृत शर्करया समय सक्तुः । इसी का कीर्तिलता में सो मिलता है - मानि जीवन मान सो । व्रज भाषा में इसी 'सो' से सों रूप बना कर सों एवं पलुटावति (सूर० ) । पउम चरिउ में समउ (< समम) रूप (2/12/2) हो जाता है । समाण (सं० समान), सरिसउ (सं०-सदृशकम, गुज० सरसुम मिलता है ।)
(2) सम्प्रदान परसर्ग - केहिं, रेसिं, तेहि, तण आदि
केहिं, रेसिं तेहि, तण' आदि पालि, प्राकृत और अपभ्रंशों में चतुर्थी विभक्ति नहीं होती है । चतुर्थी का सम्बन्ध प्रायः षष्ठी से हुआ करता था। कभी-कभी इसका सम्बन्ध कर्म से भी जुट जाता था । उपर्युक्त केहिं, रेसिं, तेहि और तण का प्रयोग हेमचन्द्र ने तादर्थ्य में निपात किया है । निपात शब्दों से मिलकर विभक्ति अर्थ का बोधक होता है । प्रा० भा० आ० में भी निपातन 42 का प्रयोग पाया जाता था । वहाँ यह शब्द अव्ययार्थ होता था । अपभ्रंश में यह विभक्ति के लिये प्रयुक्त हुआ है :
हउँ झिज्जउँ तउ केहि ँ पिअ, तुहुँ पुणु अन्नहि रेसि (8/4/425) संस्कृत अहं क्षीणा तव कृते प्रियत्वं पुनः अन्यस्या कृते ।
आगे चलकर रेसिं का रूप नहीं मिलता किन्तु चतुर्थी विभक्ति के बोध के लिये 'केहिं' का विकसित रूप परवर्ती अपभ्रंश में पाया जाता है।
हउँ झिज्जउँ तउ केहि (हेमचन्द्र )
परकेहँ, आपणु केहँ, पढ़बे किहँ (उक्ति व्यक्ति प्रकरण)
कर्म और सम्प्रदान के परसर्ग प्रायः एक दूसरे के पूरक होते
हैं। इस सृष्टि से ये दोनों एक दूसरे के बहुत निकट हैं । अवधी कहँ का संबंध हेमचन्द्र के केहि से भी जोड़ा जा सकता है।