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अपभ्रंश और देशी
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ट्रांसेक्शनल प्रोसीडिंग्ज ऑव दि इटरनेशनल कांग्रेस ऑव
ओरियंटैलिस्ट' जिल्द-1, 1883 में रिचर्ड मोरोज एम० ए०, एल. डी० का पाली, संस्कृत और प्राकृत के तत्व नामक शीर्षक । अपभ्रंश काव्यत्रयी, गायकबाड़ ओरियंटल सीरीज पृ० 96 । षष्ठोऽत्रभूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः, 2.12 | देशेषु देशेषु पृथग्विभिन्नं न शक्यते लक्षणतस्तु वक्तुम् । लोकेषु यत् स्यादपभ्रष्टसंज्ञं ज्ञेयंहि तद्देश विदोऽधिकारम् ।।
- विष्णुधर्मोत्तर, सं० 3, अ० 71 अपभ्रंशस्तु यच्छुद्धं तत्तद्देशेषु भाषितम्।-काव्यालंकार 2, 3 । "स्वोपज्ञ विवरोपेतनाट्यदर्पण' पृ० 124-देशस्य कुरुमागधादेरुद्देशः प्राकृतत्वं तस्मिन् सति स्व स्वदेशसंबंधिनी भाषा निबंधनीयेति । इयं च देशगीश्च प्रयोऽपभ्रंशे निपतीति। पाहुड़ दोहा की भूमिका-पृ० 33-46 पालित्तएण रइया वित्थरओ तहय देसीवयणेहिं । नामेण तरंगवईकहा विचित्ताय विचित्ताय विउलाय ।। पायय भासारइया मरहट्टय देसी वयण णिवद्धौ । (डा० ए० एन० उपाध्ये द्वारा, लीलावाई की भूमिका से उद्धृत)। भणियं च पिनय भाए रहयं मरहट्ट देसी भासाए। अंगाई इमीय कहाए सज्जणासंग जोड गाई ।।
__ (लीलावाई गाहा, 1330)। पाहुड़ दोहा, भूमिका, पृ० 43 । णं विणाभिदेसी-महापुराण। 1,8.10। वायुरणु देसि सद्दत्थगाढ़, छंदालंकार बिसाल पोढ । ससमय-परसमय-वियारसहिय, अवसद्दवाय दूरेण रहिय ।। जइ एव माए-बहुलक्खणेहिं, इह विरइय वियक्णणेहिं। ता इयर कईयण संकिएहिं, पयडिब्वउ किं उप्पउ ण तेहिं ।।
पाहुड़ दोहा, भूमिका, पृ० 44 |