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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
2. कुछ शब्दरूप ऐसे हैं जिनके स्थान पर दूसरे शब्द प्रयुक्त होकर उसी पूर्ववर्ती शब्द का अर्थ देते हैं।
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3. अन्य रूप वैकल्पिक 'अक्षरों का है जो संस्कृत रूपों में नहीं पाया जाता। इसी बात को प्राकृत वैयाकरणों ने क्रमशः वर्णलोप, वर्णादेश तथा वर्णागम कहा है। इस तरह वैयाकरणों के वर्णन करने की अपनी प्रणाली थी । यद्यपि शब्दरूपों के परिवर्तन की यह स्थिति प्राकृत के पूर्व संस्कृत में भी थी, तथापि उसकी प्रक्रिया वहाँ दूसरे ढंग की मानी गई है । अतः तद्भव में विभिन्न प्रकार की बोलियों के शब्द पाऐ जाते हैं। डा० हार्नले " ने तद्भव की प्रथम पद्धति को सिद्ध तद्भव माना है तथा दूसरे प्रकार के तद्भव को साध्यमान तद्भव । प्रथम सिद्ध की सिद्धि विनष्ट तद्भव की भाँति है और बाद के तद्भव पुराने तद्भवों की भाँति हैं । यह तद्भव सम्बन्धी निष्कर्ष या तो विभिन्न प्रकार की बोलियों की व्याख्या से निकाला जा सकता है अथवा परवर्ती संस्कृत शब्दों के परिचय से । अतः तद्भव के विभिन्न प्रकार के रूपों का अनुमान परवर्ती काल की साहित्यिक प्राकृत की मूल बोली के शब्दों से किया जा सकता है। ये अधिकाँश तद्भव शब्द प्राकृत के मूल रूपों से क्षीण होकर बने हुए रूप हैं। विशुद्ध तद्भव शब्दों की अपेक्षा वे शब्द बहुत अधिक क्षीणावस्था के थे और प्रत्यक्षरूपेण संस्कृत से उन शब्दों का परिचय नहीं था, जब कि तत्सम शब्द प्रत्यक्षरूपेण संस्कृत से साहित्यिक प्राकृत में आए थे। तत्सम शब्दों में भी तद्भव की भाँति विभिन्न प्रकार के शब्दों की क्षीणावस्था का पता लगता है । उसका पता हम तत्सम शब्दों के साथ संस्कृत शब्दों की तुलना करके लगा सकते हैं। अस्तु मुरलीधर बनर्जी 29 का कहना है कि प्राकृत वैयाकरणों ने संस्कृत के आधार पर आगम और आदेश के द्वारा प्राकृत बोलियों में विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों की व्याख्या की है जो कृत्रिम है और काल्पनिक भी। ये नियम केवल व्याकरणसंबंधी नियमपालन के लिये किए गए थे। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र के 17-24 अध्याय में 18 देशी भाषाओं का वर्णन किया है जो विभिन्न प्रांतों की बोलियों के तद्भव रूप मालूम पड़ते हैं । निश्चय ही वे शब्द संस्कृत से आए हुए प्रतीत नहीं होते ।