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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
या न० भा० आ० भाषाएँ जन्म लेती हैं। यही बात डा० हानले० पिशेल, ग्रियर्सन आदि ने देश्य भाषा की अपभ्रंश के विषय में लिखा है। इस पर श्री मधुसूदन चिमन लाल मोदी102 का कहना है कि ऐसा रूप मानने पर ही अपभ्रंश के अनेक रूप हमारे सामने आते हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि हेमचन्द्र ने अपभ्रंश में शौरसेनी अपभ्रंश का ही वर्णन किया है।
पूर्वी तथा पश्चिमी प्राकृतों के बीच में एक मध्यवर्ती प्राकृत भी थी, इसका नाम अर्धमागधी था। इस प्राकृत से विकसित अपभ्रंश का प्रतिनिधित्व अवध, वघेल खण्ड तथा छत्तीसगढ़ प्रदेशों में बोली जाने वाली पूर्वी हिन्दी है। पश्चिमी प्राकृत अर्थात् नागर अपभ्रंश की बोली समस्त पश्चिमी भारत में फैली हुई थी। इन्हीं में से मध्य दोआब की शौरसेनी अपभ्रंश भी थी जो पश्चिमी हिन्दी की जननी बनी।
उत्तरी मध्य पंजाब की टक्क एवं संभवतः दक्षिण पंजाब की उपनागर अपभ्रंश भाषाएँ थीं। ग्रियर्सन का कहना है कि पंजाब की विभिन्न बोलियों की उत्पत्ति इन्हीं अपभ्रंशों से हुई है। इस (नागर) अपभ्रंश की अन्य विभाषाओं में से एक तो राजस्थानी की जननी आवन्त्य थी जिसका प्रधान केन्द्र वर्तमान उज्जैन की चारों ओर का समीपवर्ती प्रदेश था और दूसरी ओर आधुनिक गुजराती की जननी गौर्जर अपभ्रंश थी। अन्तिम दोनों भाषाएँ परिनिष्ठित नागर अपभ्रंश के अतिनिकट थीं। प्रो० पिशेल का कहना है कि शूरसेन प्रदेश में प्रचलित शौरसेनी अपभ्रंश के अतिनिकट आधुनिक गुजराती और मारवाड़ी भाषाएँ हैं। एक शौरसेनी प्राकृत थी जो कि कृत्रिम भाषा थी और नाटकों में गद्य के काम में लायी जाती थी। इसकी सारी रूपरेखा संस्कृत से मिलती जुलती है। अपभ्रंश का विभाजन
डा० याकोबी ने सनत्कुमार चरित की भूमिका में अपभ्रंश का विभाजन किया है। उन्होंने अपभ्रंश का विभाजन उत्तरी, पश्चिमी, पूर्वी और दक्षिणी में किया था। इस मत का खण्डन करते हुए