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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
करना कठिन सा हो जाता है। पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता से दूर होकर अगर उसकी भाषा पर दृष्टिपात करें तो विदित होगा कि वह अपभ्रंश के समीप अधिक है हिन्दी की ओर कम। संभवतः इन्हीं सभी कारणों से पं० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने पृथ्वीराज रासो के रचयिता को अपभ्रंश का अन्तिम कवि कहना अधिक पसन्द किया है हिन्दी का आदि कवि कम। वस्तुतः अपभ्रंश भाषा में 14वीं और 15वीं शताब्दी तक रचनाएँ होती रहीं। विद्यापति ने एक ओर कीर्तिलता और कीर्तिपताका की रचना की है जिसे हम अवहट्ट या अपभ्रंश कहते हैं। अवहट्ट नाम तो स्वतः विद्यापति ने दिया है, दूसरी ओर विद्यापति ने तत्कालीन भाषा में प्रचलित लोक भाषा में गीत भी लिखे हैं। इन गीतों में तथा कीर्तिलता में काफी अन्तर है। कीर्तिलता के गद्य एवं पद्य में भी अन्तर पाया जाता है। गद्य की भाषा कुछ तत्सम की ओर झुकी है तो पद्य की भाषा तद्भव प्रधान है और देशी शब्दों से युक्त हैं। गीत की भाषा को आज का आदमी अधिक सरलता से समझ लेता है किन्तु अवहट्ट की भाषा समझने में अधिक आयाम की आवश्यकता प्रतीत होती है, शब्दों की जानकारी करनी पड़ती है। कहना यही है कि दो भिन्न रचनाएँ दो तरह की हैं या दो प्रकार की भाषा की हैं।
अपभ्रंश का स्वरूप
पहले हम लिख चुके हैं कि संस्कृत वैयाकरणों के अनुसार अपभ्रंश संस्कृतेतर भाषा है। मीमांसकों एवं नैयायिकों ने भी शब्द शास्त्र पर विचार करते हुए वैयाकरणों की तरह ही विचार किया है। वैयाकरणों ने पभ्रंश शब्द का प्रयोग अपभ्रष्ट के अर्थ में ही किया है। उन लोगों का प्रायः यही विश्वास है कि सभी संस्कृतेतर शब्द संस्कृत के अपशब्द हैं यानी अपभ्रंश हैं। पुराने जमाने में शब्दशास्त्र पर विचार करते समय संस्कृत के विकृत रूपों या इतर शब्दों के लिये यही नाम प्रतिनिधित्व करता था। इसी कारण दण्डी