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अपभ्रंश भाषा
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अपभ्रंश दोहों में निर्विभक्तिक प्रयोग तो भरे पड़े हैं। सन्देश रासक और कीर्तिलता तो वस्तुतः पुरानी हिन्दी का प्रारूप ही है। संभवतः इन्हीं सभी कारणों से पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने हेमचन्द्र के अपभ्रंश दोहों को भी पुरानी हिन्दी कहकर पुकारा था। ध्वनि विकास भी आधुनिक हिन्दी के बहुत समीप है। अतः अपभ्रंश संस्कृत, पालि और प्राकृत के श्लिष्ट भाषा कुल से उत्पन्न होकर भी, वह अश्लिष्ट होने के कारण एक नये प्रकार की भाषा है। इस माने में वह पूर्वोक्त तीनों भाषाओं से दूर है तथा आधुनिक भाषाओं के बहुत समीप है। यह एक नीवन भाषा की सूचना देता है जिससे कि न० भा० आ० भाषाओं का विकास हुआ है। हेमचन्द्र के परवर्ती आचार्यों की अपभ्रंश रचनायें
हेमचन्द्र ने परिनिष्ठित अपभ्रंश का व्याकरण लिखा था। सूत्रों के उद्धरणों में जो दोहे दिये हैं वे विविध साहित्य से संकलित किये गये हैं। हेमचन्द्र के समय में अपभ्रंश जनता की भाषा से दूर हो गयी थी। वह साहित्य में ही प्रचलित थी। देश भाषाओं में रचनाएँ होने लगी थीं। इसका यह तात्पर्य नहीं कि अपभ्रंश में रचना होती ही नहीं थी। इस भाषा में रचनाएँ अब भी होती थीं। सुसभ्य और सुसंस्कृत लोगों में अब भी इसी का बोलबाला था। इसने कभी वह मन्त्र फँका था जो सर्व साधारण जनता का प्रतिनिधित्व करता था। इसी से लोक भाषाएँ भी पनप रही थीं। लोक भाषाओं में भी साहित्य रचे जा रहे थे और अपभ्रंश में भी साहित्य लिखे जा रहे थे। हेमचन्द्र के बाद जितनी भी रचनाएँ अपभ्रंश में लिखी जा रही थीं वे सरलता की ओर, निर्विभक्तिक रूपों की ओर अधिक झुकी हुई थीं। चाहे संदेश रासक को लें, चाहें कीर्तिलता को या वर्णरत्नाकर को या किसी अन्य रचना को, वे सभी सरलता की ओर झुकी हुई हैं, नव्य भारतीय भाषाओं के बहुत समीप हैं। कभी-कभी तो नव्य भारतीय आर्य भाषाओं की प्रारम्भिक रचनाओं में तथा अपभ्रंश की परवर्ती रचनाओं में भेद