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अपभ्रंश भाषा
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उनसे यही निष्कर्ष निकलता है कि पतञ्जलि के समय में अपभ्रंश का अर्थ होता था संस्कृत से भिन्न समस्त प्राकृत भाषायें। भले ही पतञ्जलि ने अपभ्रंश का अर्थ अपशब्द लिया हो। संस्कृत भाषा के प्रति पूज्य बुद्धि रखने के कारण एवं उसकी पवित्रता की सुरक्षा की समस्या से अभिभूत होकर गोः शब्द से अतिरिक्त शब्दों को अपशब्द कहना उचित ही था। बाद में ये शब्द वैयाकरणों के यहां रूढ़ हो गये किन्तु प्राकृत के लिए अपभ्रंश शब्द का प्रचलन नहीं हुआ।
भरत
__ भरत ने अपने नाट्य शास्त्र में (300 ई० के लगभग) प्राकृत भाषा का भेद कई रूपों में किया है इससे तत्कालीन भाषा का बहुत कुछ ज्ञान होता है। उसने प्राकृत को भाषा तथा विभाषा के अन्तर्गत विभक्त किया है एवं 'देश भाषा' की भी कल्पना की है। किन्तु सबसे बड़ी विचित्र बात यह है कि उसने अपभ्रंश का वर्णन तो दूर रहा उसका उल्लेख तक नहीं किया है। 17वें अध्याय में प्राकृत के शब्दों पर विचार करते हुए उसने तीन प्रकार के शब्दों का चित्रण किया है-समान शब्द, विभ्रष्ट, और देशी27 | विभ्रष्ट शब्द से कुछ लोगों ने अपभ्रंश का अनुमान किया है क्योंकि आभीरों की बोली उकारबहुला कही जाती है। शब्दों के अन्त में उकारात्मक रूप का आना अपभ्रंश की विशेषता कही जाती है। अतः भरत वर्णित उकारात्मक बोली अपभ्रंश की ओर संकेत करती है। अपभ्रंश का यह उकार रूप बौद्धों की प्राकृत में भी पाया जाता है। अपभ्रंश के कुछ उकार विमल सूरि के 'पउम चरिउ' (300 ई०) में भी प्रतिभासित होते हैं। एचं० स्मिथ28 के अनुसार पालि में अपभ्रंश के कुछ अंश उपलब्ध हो सकते हैं।
इन्हीं सभी प्रमाणों के आधार पर डा० गजानन तगारे (81)29 ने अनुमान किया है-'ऐसा प्रतीत होता है कि अपभ्रंश भाषा का अस्तित्व कम से कम 300 शताब्दी ई० के पहले से ही है।'