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अपभ्रंश भाषा
कुमारिल भट्ट ने अपने तन्त्रवार्तिक'० (पूना प्रकाशन पृ० 237) में लिखा है कि अपभ्रंश शब्द असाधु शब्द है।
निष्कर्ष यह कि संस्कृत वैयाकरणों ने अपभ्रंश शब्द का प्रयोग संस्कृत से इतर शब्दों के लिये किया है। संस्कृत वैयाकरणों के यहाँ संस्कृत भाषा की सुरक्षा तथा उसके शुद्ध उच्चारण करने की समस्या थी। अतः उन लोगों ने प्रत्येक दृष्टि से संस्कृतेतर शब्दों को त्याज्य समझा और उसके लिये अपभ्रंश, अपशब्द और असाधु शब्द का प्रयोग किया है। वैयाकरणों के अतिरिक्त नैयायिकों तथा मीमांसकों ने भी शब्द शक्ति पर विचार करते समय संस्कृत शब्दों के शुद्ध उच्चारण करने पर बल दिया है और संस्कृत से इतर शब्दों को असाधु कहा है। 7वीं शताब्दी के दण्डी ने इन्हीं सारी चीजों पर विचार करके अपने काव्यादर्श में कहा था कि शास्त्रों (शास्त्र का अर्थ व्याकरण से है) में संस्कृत से इतर शब्दों को अपभ्रंश कहते हैं-शास्त्रेषु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् ।
इस प्रकार अपभ्रंश के लिये कई प्रकार के शब्द प्रचलित थे-अपभ्रंश, अपभ्रष्ट, विभ्रष्ट, अपशब्द, अवमंस, अवहंस, अवहत्थ अवहट्ट, अवहठ और अवहट आदि। इनमें से कुछ नाम तो संस्कृत के हैं जिनका कि पहले वर्णन किया जा चुका है और कुछ नाम प्राकृत और अपभ्रंश में भी पाये जाते हैं। काव्यों में अपभ्रंश शब्द के प्रयोग
संस्कृत व्याकरण के अतिरिक्त, काव्यों में भी अपभ्रंश शब्द का प्रयोग हुआ है। कालिदास ने शाकुन्तलम् में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग च्युत या स्खलन के अर्थ में किया है। भाष्यकार के अतिरिक्त भर्तृहरि 2 ने भी अपशब्द का प्रयोग भ्रष्ट, विकृत, अशिष्ट या अपभाषा के अर्थ में किया है। अपभ्रष्ट' शब्द का प्रयोग अपभ्रंश भाषा के अर्थ में विष्णुधर्मोत्तर (खण्ड 3/अ०-3) ने किया है। अपभ्रंश का तद्भव रूप अवब्मंस तथा अवहंस उद्योतन की कुवलयमाला'4 कहा (8वीं शताब्दी ईस्वी) एवं पुष्पदन्त के महापुराण (10वीं शताब्दी