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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
डा० मनमोहन घोष के अनुसार मध्य भारतीय आर्य भाषा के रूप में महाराष्ट्री काफी समय बाद ( ई० सन 600 ) स्वीकृत हुई, कर्पूर मंजरी की भूमिका, पृ० 761
डा० ए० एन० उपाध्याय ने भी महाराष्ट्री को शौरसेनी के बाद का रूप स्वीकार किया है ( चन्दलेहा की भूमिका) । डा० ए०एम० घटगे उक्त मत से सहमत नहीं हैं । उक्त मत के अनुसार हेमचन्द्र आदि वैयाकरणों ने जो प्राकृत का विवेचन किया है, उससे उनका तात्पर्य महाराष्ट्री प्राकृत से ही है, देखिये - जनरल आव यूनिवर्सिटी आव बाम्बे, मई 1936 में महाराष्ट्री लैंग्वेज एण्ड लिटरेचर नामक लेख |
उदाहरण के लिए नीचे लिखे शब्द ध्यान देने योग्य हैंकअ (कच, कृत्), कइ (कति, कपि, कवि, कृति), काअ (काक, काच, काय), मअ ( मत, मद, मय, मृग, मृत), सुअ ( शुक, सुत, श्रुत) । प्राकृत भाषाओं का व्याकरण पृ० 18 ।
प्राकृत भाषाओं का व्याकरण से उद्धृत पृष्ठ 251
भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी पृ० 190 ।
प्राकृत साहित्य का इतिहास पृ० 13 डा० जगदीश चन्द्र जैन । जर्नल ऑव द यूनिवर्सिटी ऑव बाम्बे, मई 1935 ।
एनल्स आव भण्डारकर ओरियन्टल इन्स्टीच्यूट बो० 21, 1939-40 | लीलाबाई कहानी की भूमिका पृ० 83 ।
31. प्राकृत मार्गोपदेशिका पृ० 18 ।
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डा० हीरालाल जैन का नागपुर यूनिवर्सिटी जर्नल, दिसम्बर 1941 में प्रकाशित पैशाची ट्रेट्स इन द लैंग्वेज ऑव खरोष्ठी इंस्क्रिप्शन्स फ्राम चाइनीज तुर्किस्तान' लेख ।