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प्राकृत
मार्कण्डेय के अनुसार केकय पैशाची संस्कृत भाषा पर आधारित है और शूरसेन पैशाची शौरसेनी पर। पंचाल और शौरसेनी पैशाची में केवल एक नियम में भेद है और वह है र के स्थान में ल होना। प्राचीन वैयाकरणों के अनुसार पैशाची के निम्नलिखित भेद किए जाते हैं-पाण्ड्य, केकय, वाहलीक, सह्य, नेपाल, कुन्तल और गान्धार। पूर्वोक्त बातों से यह पता चलता है कि पैशाची की प्राकृत बोलियाँ भारत के उत्तर और पश्चिम भागों में बोली जाती रही होंगी। वाग्भटालंकार में (2, 1 और 13) पैशाची को भूत वचन या भूत भाषित कहा गया है। भारतीय परम्परा के अनुसार भूतों की बोली भीतर के नाक से बाली जाती है। किन्तु प्राकृत वैयाकरणों ने इसका उल्लेख नहीं किया है।
पैशाची ध्वनि तत्त्व की दृष्टि से संस्कृत, पालि और पल्लव वंश के दान पत्रों की भाषा से मिलती जुलती है। गुणाढ्य की बहत्कथा पैशाची की सबसे प्राचीन कृति है। अब केवल प्राकृत व्याकरण में इसकी विशेषता मात्र पाई जाती है
(1) (क) पैशाची में वर्ग के तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के स्थान में क्रमशः प्रथम और द्वितीय अक्षर हो जाते हैं-गगन-गकन, मेघ-मेख।
(ख) ण के स्थान में न होता है-तरुणी-तलुनी। (ग) स्ट के स्थान में सट होता है--कष्ट-कसट । (घ) स्न के स्थान में सन होता है-स्नान-सनान । (ङ) न्य के स्थान में ञ होता है-कन्या-कञ्ञ ।
(2) (क) पैशाची में ट, ठ, ड, ढ, और ण सामान्यतया या विकल्प कर के त, थ, द, ध, न में परिवर्तित हो जाता है। कुतुंबकं या कुटुम्बकं, मूर्धन्य दन्त्य में परिवर्तित हो जाता है।
(3) (क) कर्मवाच्य य का इय्य होता है-गम्यते-गमिय्यते, गियते-गिय्यते, दियते-दिय्यते, पठ्यते-पठिय्यते।
(ख) भविष्यत्काल तृ० पुं०, ए० व० में एय्य होता हैभविष्यति-हुवेय्य।