________________
हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
पासित्ताण करेत्ताण, ( 3 ) इत्ति - जाणित्तु, (4) च्चा- किच्चा, (5) इया - परिजाणिया इत्यादि बहुत से रूप होते हैं ।
76
तुम का कभी इत्तए या इत्तत्ते करित्तए, उवसामित्तते । ऋ से युक्त धातु के अन्त के त का ड होता है - कृत-कड, मृत-मड, वृत्त - वड आदि ।
पैशाची की विशेषता
पैशाची बहुत प्राचीन है । इसकी गणना पालि, अर्धमागधी और शिलालेखी प्राकृत के साथ की जाती है। ग्रियर्सन के अनुसार पैशाची पालि का ही एक रूप है। यह भारतीय आर्य भाषाओं के विभिन्न रूपों के साथ घुल-मिल गई। डा० हीरालाल जैन 2 के अनुसार पैशाची की विशेषतायें चीनी, तुर्किस्तान के खरोष्ठी शिलालेखों में देखी जा सकती हैं। पिशेल का कहना है कि आरम्भ में इस भाषा का नाम पैशाची इसलिए पड़ा होगा कि यह महाराष्ट्री, शौरसेनी और मागधी की भाँति ही पिशाच जनता द्वारा या पिशाच देश में बोली जाती होगी । अर्थात् पिशाच एक जाति का नाम होगा और बाद को भूत भी पिशाच कहे जाने लगे तो जनता और वैयाकरणों ने इसे भूत भाषा कहना आरम्भ किया । पिशाच या पैशाच लोगों का उल्लेख महाभारत 7, 121, 14 में मिलता है । भारतीय लोग पिशाच का अर्थ भूत करते हैं (सरित सागर 7, 26 और 27)। वररुचि ने प्राकृत प्रकाश के दसवें परिच्छेद में पैशाची का विवेचन करते हुए शौरसेनी को उसकी आधारभूत भाषा स्वीकार किया है। हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण के 8/4/303324 तक पैशाची का वर्णन किया है। मार्कण्डेय ने तीन पैशाची बोलियों का उल्लेख किया है- कैकेय, शौरसेन और पांचाल । संभवतः मार्कण्डेय के समय में तीन साहित्यिक पैशाची बोलियां रही होंगी। उसने लिखा है
कैकयं शौरसेनञ्च पाञ्चालम् इति च त्रिधा । पैशाच्यो नागरा यस्यात् तेनाप्यन्यान् लक्षिताः । ।