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है और इन्हीं की प्राप्ति में सुख की कल्पनाएं की जाती हैं। अपने शरीर और अपनी वस्तुओं के प्रति पनपने वाला यह झुकाव ही प्रगाढ़ बनकर ममत्व का रूप ले लेता है।
ममत्व की इस भूमिका पर ही विषमता की विष बेल उगती है। ममत्व का अर्थ है मेरापना। यह मेरा है और यह तेरा है—इसी बिंदु से विषमता शुरू होती है। मेरा मैं रखता हूं और तेरा तू रख की वृत्ति तब तक ही चलती है, जब तक मानवीय मूल्यों का सत्प्रभाव रहता है। यह सत्प्रभाव जब घटने लगता है और जो घटता है ममत्व की मूर्छा के बढ़ते रहने के साथ-तब मेरा भी मैं रखता हूं और तेरा भी मैं रखूगा-ऐसा क्रूर अनीतिमय स्वार्थ जागता है। इसके साथ ही हिंसा का द्वार खुल जाता है।
ममत्व पैदा होता है आसक्ति से और आसक्ति मूरूिप होती है जिससे सदासद् की संज्ञा क्षीण हो जाती है। शरीर मेरा है और इन्द्रियों का सुख मेरा है—इस मान्यता के साथ कामनाएँ जागती हैं कि मुझे शब्द, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के ऊंचे से ऊंचे सुविधापूर्ण साधन मिलें ताकि मैं अपनी इन्द्रियों को तृप्त करूं। यह तृप्ति भी बड़ी अनोखी होती है जो मिलती कभी नहीं और साधनों की प्राप्ति के साथ ज्यादा से ज्यादा भड़कती रहती है। जिन साधनों की कामना की जाती है, उनको पाने में आसक्ति की बहुलता के कारण विचार और व्यवहार की उचितता अथवा नैतिकता भुला दी जाती है। फिर ज्यों-ज्यों इच्छित साधनों की प्राप्ति होती जाती है, त्यों-त्यों प्राप्त का सुख भोगने की अपेक्षा अप्राप्त को प्राप्त करने की चिन्ता अधिक सताती है। तथ्यात्मक स्थिति यह होती है कि तृप्ति कभी होती नहीं, सुख कभी मिलता नहीं। जो सुख महसूस करते हैं, वह सुख भी वैसा ही होता है जैसा सुख एक कुत्ता सूखी हड्डी चबाते रहकर अपने ही खून का स्वाद लेता है और सुख महसूस करता है। जड़ पदार्थों का सुख भी सूखी हड्डी जैसा होता है जो आत्म गुणों का नाश करके इन्द्रियों के सुखाभास में जीवन को भ्रमित बनाता है और विषमता के जाल में फंसाता है।
___ इसी कारण परिग्रह–सत्ता और सम्पत्ति के प्रति आसक्ति भावना रूप मूर्छा को कहा है क्योंकि यही आसक्ति-भावना परिग्रह धारी या परिग्रह हीन को भी घोर परिग्रहवादी बनाती है। परिग्रहवाद है वही है जड़ग्रस्तता और जीवन में जितनी अधिक जड़ग्रस्तता सघन बनती है, उतनी ही विषमता भी जटिल बनती है। इस विषमता से व्यक्ति के जीवन में शक्तिस्रोतों का सन्तुलन बिगड़ जाता है तो व्यक्ति का असंयमित एवं असन्तुलित जीवन समाज और राष्ट्र के बृहद् शक्ति स्रोतों को भी विकृति की राह पर धकेलता है। जब व्यक्ति की विषमताग्रस्त अवस्था में उस की मानवीय गुणवत्ता, सौजन्यता तथा हार्दिकता कुंठाग्रस्त बन जाती है तो वही कुंठा व्यापक बन कर राष्ट्रीय चेतना पर प्रहार करती है। जड़ग्रस्तता के फैलाव में भोग स्वार्थ और मूर्छा का फैलाव होता है। यह एक ऐसे अँधेपन का फैलाव होता है जिसमें मनुष्य निजी स्वार्थों का संकुचित घेरा बनाकर उसी में अपने को कैद कर लेता है। वह परहित को भूल जाता है, बल्कि अपने निकटस्थों के सुख दुःख से भी द्रवित नहीं होता और अपनी ममत्व-मूर्छा में ही उन्मत्त बन जाता है। तब वह आध्यात्मिक ज्ञान से तो शून्य होता ही है, किन्तु लौकिक व्यवहार से भी शून्य होता जाता है। यही उसके सर्वमुखी पतन का मार्ग होता है।
जड़ग्रस्तताजन्य विषमता छूत के रोग के समान होती है जो अधिक सत्ता और सम्पति येन केन प्रकारेण अर्जित कर लेने का प्रलोभन बिखेरती हुई अधिक लोगों को तीव्र गति से जड़ग्रस्त
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