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हो गये हैं। हिंसा का द्वार जिस व्यक्ति के अथवा समाज या राष्ट्र के जीवन में खुल जाता है फिर उसकी संस्कृति और सभ्यता भी नष्ट होने लगती है। हिंसा सभी प्रकार के दुर्गुणों तथा पापमय आचरणों की जननी होती है। यह हिंसा रूई में पड़ी चिनगारी से लगी आग की तरह तेज गति से फैलती ही जाती है, तब उस पर काबू पाना भी एक अति कठिन कार्य हो जाता है।
हिंसा का अर्थ स्पष्ट किया जा चुका है कि किसी का वध कर देना ही हिंसा नहीं, अपितु दस प्राणों में से किसी भी प्राण का हनन करना या उसको कष्ट पहुंचाना भी हिंसा है। किसी को आतंकित करना, डराना या उसे अपने अधीन बनाना भी हिंसा है। ये सब हिंसा के रूप जब फैलते हैं तो मानवीय गुणों का ह्रास होता है और जीवन-मूल्य नष्ट होते हैं। इसे एक द्रष्टान्त से समझें। एक परिवार में सभी खून के सम्बन्ध में बंधे होते हैं अतः स्पष्ट है कि हृदय से अपेक्षित या अधिक निकट होते हैं। सोचें कि एक परिवार में पांच छः सदस्य हैं। उनमें वृद्ध भी हैं तो बच्चे भी हैं। यद्यपि धनार्जन का श्रमपूर्ण कार्य यवक सदस्य करते हैं, तब भी अधिक व्यय वद्धों और बच्चों पर किया जाता है क्योंकि उन्हें पोषक तत्त्वों की अधिक आवश्यकता होती है। कमाने वाले सदस्य ऐसा करके अपने को कर्तव्यनिष्ठ मानते हैं और यह नहीं सोचते कि कमाते वे हैं और खर्च उन सदस्यों पर अधिक होता है जो कमाते नहीं है। इस प्रकार की पारिवारिक मर्यादाएं स्वस्थ रूप से ढल जाती हैं और चलती रहती हैं। यह पारिवारिक कर्तव्य और शिष्टाचार बन जाता है। अब सोचें कि उस परिवार में अर्जन में कमी आ जाय और पदार्थों की अल्पता होने लगे तब भी पारिवारिक मर्यादाओं के रहते प्रचलित व्यवहार में परिवर्तन नहीं आवेगा। सभी एक दूसरे के लिये कष्ट भोग को तैयार रहेंगे और स्नेह यथावत् रहेगा। इस अल्पता के कष्ट यदि बढने लगे और कोई युवा सदस्य उत्तेजना पकड़ले या फिर क्रूरता अपनाले तो निश्चय मानिये कि दिलों में दरार पड़ जायगी और एक सुखी परिवार दुःखपूर्ण मानसिकता से घिर जायगा। हिंसा का द्वार किसी भी रूप में खुला नहीं कि दुःखों की बाढ़ आई नहीं। कारण, विभावगत विषमता सबके मन-मानस में कटुता भर देगी और देखते देखते परिवार की एकता नष्ट हो जायगी। ऐसा ही सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी घटित होता
है।
इस रूप में विषमता का विस्तार हिंसा के द्वार से आरंभ होता है और गुण-मूल्य की क्षति के साथ बेरोकटोक फैलता रहता है। सोचना है कि विषमता के इस विस्तार का मूल कहां है ? एक शब्द में कहें कि यह मूल है जड़ सम्पर्क से जड़ के प्रति सघन बन जाने वाला चेतन का व्यामोह । विषमता इसी से उपजती है और आध्यात्मिक दृष्टि से कर्मबंधन तथा संसार परिभ्रमण भी इसी से होता है। जब तक इस सत्य को हृदयंगम नहीं करेंगे कि आत्मा चेतना गुण वाली होकर संसार के सभी जड़ पदार्थों से पृथक् है और जड़चेतन संयोग तथा उसके प्रति जटिल व्यामोह इस पृथकत्व को स्पष्ट नहीं होने देता है, तब तक यह व्यामोह कम नहीं होगा और वैसी दशा में विषमता भी कम नहीं होगी।
अधिक जड़ग्रस्तता : अधिक विषमता संसार में जो कुछ इन बाहर की आंखों से दिखाई देता है, यह सब जड़तत्त्वों की रचना है। आत्म तत्त्व चर्म चक्षुओं का विषय नहीं होता, अनुभूति का विषय होता है और यह अनुभूति अभ्यास से मिलती है। अतः सम्यक् ज्ञान के अभाव में इन जड़ तत्त्वों के प्रति ही झुकाव पैदा होता
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