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आचार्य और उपाध्याय में शेष साधुओं की अपेक्षा पांच अतिशय अधिक माने गये हैं - (१) उत्सर्ग रूप से सभी साधु जब बाहर से आते हैं तो उपाश्रय में प्रवेश करने से पहिले बाहर ही पैरों को पूंजते और झटकाते हैं किन्तु आचार्य —उपाध्याय बाहर से लौटकर उपाश्रय के बाहर ही खड़े रहते हैं और दूसरे साधु उनके पैरों का प्रमार्जन व प्रस्फोटन करते हैं। बाहर न ठहर कर भीतर भी आ जाते हैं तो उनके पैरों को पूंजने व झटकाने की सेवा दूसरे साधु करते हैं। यह उनका अतिशय माना गया है। इससे उनके साध्वाचार का अतिक्रमण नहीं होता। (२) आचार्य व उपाध्याय का उपाश्रय में लधुनीत, बड़ीनीत का अवसर देखना या पैर आदि में लगी हुई अशुचि को हटाने में साधु के आचार का अतिक्रमण नहीं होता। (३) आचार्य व उपाध्याय इच्छा हो तो दूसरे साधुओं की वैयावृत्य करते हैं और इच्छा नहीं हो तो नहीं भी करते हैं। (४) आचार्य व उपाध्याय उपाश्रय में एक या दो रात तक अकेले रहते हुए भी साध्वाचार का अतिक्रमण नहीं करते। (५) आचार्य व उपाध्याय उपाश्रय से बाहर एक या दो रात तक अकेले रहते हुए भी साध्वाचार का अतिक्रमण नहीं करते।
आचार्य और उपाध्याय सात बातों का ध्यान रखने से ज्ञान अथवा शिष्यों का संग्रह कर सकते हैं। इनसे संघ में व्यवस्था भी कायम रह सकती है तो दूसरे साधुओं को अपने अनुकूल व नियमानुसार भी चला सकते हैं। वे सात बातें या संग्रह स्थान इस प्रकार हैं- (१) आचार्य और उपाध्याय को आज्ञा और धारणा का सम्यक् प्रयोग करना चाहिये। किसी काम के लिये विधान करने को आज्ञा कहते हैं और किसी बात से रोकने को धारणा । इस तरह के नियोग (आज्ञा) और नियंत्रण (धारणा) के अनुचित होने पर साधु आपस में अथवा आचार्य के साथ कलह करने लगते हैं जिससे व्यवस्था टूटनी शुरू हो जाती है। उसे भी आज्ञा कहते हैं जब देशान्तर में रहा हुआ गीतार्थ साधु अपने अतिचार को गीतार्थ आचार्य से निवेदन करने के लिये अगीतार्थ साधु के सामने जो कुछ गूढार्थ पदों में कहता है। उसे भी धारणा कहते हैं जब अपराध की बार बार आलोचना के बाद जो प्रायश्चित विशेष का निश्चय किया जाता है। इन दोनों का प्रयोग यथारीति से किया जाना चाहिये, ताकि संघ में एकता और दृढ़ता बनी रहे। (२) आचार्य और उपाध्याय को रत्नाधिक की वन्दना आदि का सम्यक् प्रयोग कराना चाहिये । दीक्षा के बाद ज्ञान, दर्शन और चारित्र में बड़ा साधु छोटे साधु द्वारा वन्दनीय समझा जाता है। यदि कोई छोटा साधु रत्नाधिक को वन्दना न करे तो आचार्य और उपाध्याय का कर्तव्य है कि वे उसे वन्दना के लिये प्रवृत्त करें। वन्दना व्यवहार के लोप होने से व्यवस्था के टूटने की आशंका रहती है। (३) आचार्य और उपाध्याय हमेशा ध्यान रखे कि शिष्यों में जिस समय जिस सूत्र के पढ़ने की योग्यता हो अथवा दीक्षा के बाद जब जो सूत्र पढ़ाया जाना चाहिये, यथासमय यथायोग्य सूत्र शिष्यों को पढ़ाया जावे। यह तीसरा संग्रह स्थान है। (४) आचार्य
और उपाध्याय को बीमार, तपस्वी तथा विद्याध्ययन करने वाले साधुओं की वैयावृत्य का समुचित प्रबन्ध करना चाहिये। (५) आचार्य और उपाध्याय को दूसरे साधुओं से पूछकर कोई भी काम करना चाहिये, मन माने ढंग से नहीं। शिष्यों से अपने दैनिक कृत्यों के लिये भी पूछते रहना चाहिये। (६) आचार्य तथा उपाध्याय को अप्राप्त आवश्यक उपकरणों की प्राप्ति के लिये सम्यक् प्रकार से व्यवस्था करनी चाहिये। साधुओं के लिये आवश्यक वस्तुओं की निर्दोष प्राप्ति का यल इस कारण आवश्यक है कि उनमें अकारण असंतोष न फैले। (७) आचार्य और उपाध्याय को पूर्व प्राप्त उपकरणों की रक्षा का भी ध्यान रखना चाहिये। उन्हें ऐसे स्थान पर नहीं रखने देना चाहिये कि जिससे वे खराब हों या चोर आदि ले जांय । यह सातवां और अन्तिम संग्रह स्थान है।
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