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यह भी एक तथ्यात्मक प्रक्रिया है कि जब कभी प्रबुद्ध व्यक्तित्वों के हाथों स्वस्थ मूल्यात्मक पद्धति स्थापित कर दी जाती है तब वह प्रारम्भिक जनोत्साह के कारण शुद्ध स्वरूप के साथ चलती है किन्तु काल प्रवाह में उस शुद्ध पद्धति के संचालन में धीरे-धीरे अशुद्धता प्रवेश करती जाती है
और धीरे-धीरे ही उसमें अशुद्धता का अंश अधिक हो जाता है तथा शुद्धता कम रह जाती है। व्याख्यात्मक दृष्टि से उस शुद्ध पद्धति को वाद कह दिया गया है तो उसके अशुद्ध बन जाने पर उसका नाम प्रतिवाद दे दिया गया। यह प्रतिवाद मूर्छात्मक अवस्था का प्रतीक हो जाता है। धीरे-धीरे इसके विरुद्ध असन्तोष और विक्षोभ जागता है, तब कुछ प्रबुद्ध-चेता व्यक्ति उस प्रतिवादात्मक स्थिति के विरुद्ध विद्रोह का झंडा खड़ा करते हैं। उनका संदेश होता है कि स्वस्थ मानवीय मूल्यों की पुनः स्थापना की जाय। यह विद्रोह बलिदानात्मक होता है और ऐसी क्रान्ति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उन का बलिदान कितना सघन होता है। अधिकांशतः ऐसे विद्रोह के प्रारंभ कर्ताओं को आभास होता है कि उनका बलिदान व्यर्थ जा रहा है क्योंकि उनके सम्पूर्ण प्रयलों के बाद भी उन्हें समाज में परिवर्तन आता हुआ नहीं दिखाई देता है। किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं है। जैसे तपते हुए रेगिस्तान में वर्षा की पहली बूंदे भाप की तरह तुरन्त उड़ जाती है, किन्तु वे बूंदें बाद की बूंदों की सफलता का मार्ग साफ कर जाती है। पहली बूंदें रेगिस्तानी रेत का ताप हरण करके भले अपना अस्तित्व तक मिटा देती हैं, लेकिन जब बाद की बूंदें बरसती है तो तापरहित रेत जल्दी ही गीली हो जाती है। यही अवस्था सामाजिक क्रान्ति की भी होती है। पहले पहल प्रबुद्धचेता व्यक्तित्वों का विद्रोह अप्रभावी जैसा दिखाई देता है और उन्हें आभास होता है कि वे अपने कार्य में विफल हो गये हैं। किन्तु वास्तव में उन्हीं का बुनियादी काम होता है। उनके काम से भीतर ही भीतर बदलाव फैलता है और जब बाद में विद्रोह का स्वर गहरा हो जाता है तब वह बदलाव बाहर प्रकट होने लगता है। अतः मानवीय मूल्यों की स्थापना के कार्य में लगने वाले प्रबुद्ध चेता व्यक्तित्वों को पूरे बलिदान के साथ कार्यरत होना चाहिये और निराशा का भाव कभी भी नहीं लाना चाहिये। सामाजिक क्रान्तियों की प्रक्रिया कुछ ऐसी ही जटिल होती हैं। प्रतिवाद के विरुद्ध विद्रोह तब बल पकड़ कर सारे विकारों को नष्ट कर देता है और पद्धति की अशुद्धता को धो डालता है। पुनः निखरा वह शुद्ध रूप समन्वयवाद कहलाता है जो वाद का रूप ही हो जाता है। शुद्धि और अशुद्धि तथा अशुद्धि से पुनः शुद्धि का यह क्रम बराबर चलता ही रहता है। इस क्रम के अनुसार शुभ परिवर्तन के लिये सदा ही प्रबुद्ध चेता व्यक्तित्वों को आगे आकर अपना नेतृत्व प्रदान करना होता है।
मैं मानता हूँ कि इस दृष्टि से धार्मिक क्षेत्र हो अथवा सामाजिक क्षेत्र-सदा ही प्रबुद्ध व्यक्तित्वों के नेतृत्व की आवश्यकता होती है। और प्रबुद्ध व्यक्ति सदा काल रहते हैं क्योंकि धर्म नीति कभी भी प्रभाव शून्य नहीं होती है। सदा कुछ व्यक्ति तो सर्वत्र ऐसे मिलेंगे ही, जो अपने आन्तरिक रूपान्तरण के लिये पुरुषार्थ रत रहते हैं। ऐसे ही व्यक्ति समय-समय पर अपने पराक्रम को प्रकट करते हैं और समाज में वांछित शुभ परिवर्तन का शंखनाद करते हैं।
अतः मेरी मान्यता में आन्तरिक रूपान्तरण का पुरुषार्थ सर्वाधिक एवं मूलतः महत्त्वपूर्ण है। यही आधार बनता है समग्र समाज की मूल क्रान्ति का। आन्तरकि रूपान्तरण का स्वरूप मेरे समक्ष स्पष्ट है कि मैं विविध विभावों में भटकती हुई अपनी आत्मा को मूल स्वभाव में प्रतिष्ठित करूं तथा उसकी इस प्रतिष्ठा को स्थिरता प्रदान करूं ।
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