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मतभेद और मनभेद की खाइयाँ खोदी जाती है ? ऐसी खाइयाँ कि साधारण जन आमने-सामने भी न हो सके। अधिकार-लिप्सा के पीछे महाविनाश की तैयारियाँ क्या मन, वचन एवं कर्म की घोर अशुभता का ही दुष्परिणाम नहीं है?
मोटे कहलाने वालों की मोटी अशुभता की कालिमामय बाढ़ में छोटा कहलाने वाला भी कहाँ बचता है ? छोटा अपनी छोटी अशुभता को लेकर ही छोटी लिप्साओं को पूरी करना चाहता है। मोटी हिंसा और छोटी हिंसा में बाहर का फर्क भले हो, लेकिन मन के भावों में घुटती रहने वाली हिंसा के गाढेपन में एक-सी मारक शक्ति दिखाई देगी। चाहे समाज के क्षेत्र में हो या राजनीति अथवा अर्थनीति के क्षेत्र में, किसी भी शक्ति से सम्पन्न व्यक्ति निर्बलों को कुचलकर अपने ही स्वार्थ पूरे करना चाहता है। और तो और धार्मिक क्रिया-कलापों के वातावरण में भी कई बार कीर्ति लालसा अथवा वर्चस्व लिप्सा सर्व प्रकार की अशुभता को भड़का देती है। सभी ओर फैलती और बढ़ती हुई विविध विषमताओं से अशुभता की यह बाढ़ वेगवती बनती जा रही है। सामान्य जन सामान्य रूप से भेड़ चाल में चलते हैं और वातावरण का अनुकरण करते हुए अनजाने भी इस प्रकार की अशुभता से अपने को रंगते रहते हैं। इस प्रकार मन से उठ कर वचन में निकलती हुई यह अशुभता चहुं ओर लोगों के कार्यों में प्रकट हो रही है तथा निरन्तर वातावरण को अधिक अशुभ, अधिक आक्रामक और अधिक आतंककारी बना रही है।
जहाँ मैंने परिवर्तन का प्रश्न उठाया है, वह परिवर्तन लाना है अशुत्रता की इस बाढ़ में। इस परिवर्तन को मैं शुभ परिवर्तन इस दृष्टि से कहता हूँ कि जितना आज इस संसार में और जन-जीवन में अशुभता का विष घुल रहा है, वह मेरे और सबके पराक्रम से शुभता का अमृत बन जाय।
वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यह बात ऐसी लगती है जैसी कि कोई उफनते हुए समुद्र की गरजती हुई लहरों और तूफान की अंधड़भरी आंधियों में छोटी-सी नाव लेकर समुद्र-विजय की बात कहे। एक अकेला व्यक्ति, छोटी नाव और छोटी-सी पतवार-जिनके सामने समुद्र का यह विकराल रूप क्या होगा यदि कोई ऐसा साहस कर बैठे ? क्या वह अपनी छोटी नाव-पतवार के साथ मृत्यु को ही प्राप्त होगा अथवा विजय की दुन्दुभी बजा देगा? यह आन्तरिक रूपान्तरण की उच्चता का प्रश्न है। महासमुद्र तो क्या सम्पूर्ण संसार का एक आत्मबली साहस के साथ सफल सामना ही नहीं करता, बल्कि वह अकेला ही सारे संसार में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकता है। ऐसा हुआ है, होता है और होता रहेगा। आन्तरिकता की ओजस्विता के समक्ष सम्पूर्ण अशुभता ने सदा ही हार मानी है और समग्र शुभता ने उसके माथे पर विजय का सेहरा बांधा है। आत्मशुद्धि के पुरुषार्थ को सफल बनाकर व्यक्तित्व का ऐसा तेजस्वी पराक्रम सिद्ध किया जा सकता है कि वह लरजते-गरजते महासमुद्र को बांध दे, अलंध्य पर्वतों के शिखरों को झुका दे और समस्त संसार में शुभ परिवर्तन का शंख गुंजा दे।
धर्म प्राप्ति के पथ पर यह एक तथ्य है कि किसी भी क्षेत्र में विकृत मूल्यों को हटाने तथा स्वस्थ मूल्यों को संस्थापित करने का सत्कार्य कुछ प्रबुद्ध व्यक्तित्व ही प्रारंभ करते हैं क्योंकि प्रचलित पद्धति के विरुद्ध विद्रोह का डंका बजाना बड़ी हिम्मत का काम होता है।
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