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(३) सत्य - सत्य जीवन का साद्य है या यों कहें स्वयं ईश्वर है । सम्यक् विचार-समन्वय की प्रक्रिया से गुजर कर ही सत्यांश को पहिचाना जा सकता है तथा सबके विचारों के प्रति आदर भाव रखकर व सबकी सुनकर सत्यांशों को एकत्रित करके पूर्ण सत्य के दर्शन किये जा सकते हैं । सत्य मन, वाणी और कार्य में समा जाना चाहिये। तथा उसे हितकारी और प्रियकारी होना चाहिये । असत्याचरण मनुष्य को अप्रतिष्ठित भी बनाता है तो अविश्वसनीय भी । असत्य के साथ जब कपटाचार जुड़ जाता है तो वह अत्यन्त घातक रूप ले लेता है । बोले गये शब्द तीर के समान होते हैं जो कभी वापस लौटकर नहीं आते अतः उन्हें तौल-तौल कर बोलना चाहिये ताकि वे सत्य भी हो एवं प्रियकारी और मधुर भी । जिसकी कथनी और करनी में जब सत्य समा जाता है तो वह सत्य के साक्षात्कार के निकट पहुंचने लगता है। सत्याचरण व्यक्ति को निर्भय, निर्लोभी, निर्विवाद एवं निर्मल बना देता है।
(४) अस्तेय - जो वस्तु प्राप्त नहीं है या नहीं दी गई है – ऐसी वस्तु को हस्तगत करना चौर्यकर्म है। चोरी में ठगाई और सीनाजोरी शामिल हो जाती है। जो लाभ श्रम के बल पर होता है, उसे जब पूंजी के बल पर हड़प लिया जाता है तो वह लाभांश चोरी ही कहा जायगा । अतः व्यक्ति की अर्जनशैली ही नहीं बल्कि समाज की आर्थिक नीति भी ऐसी होनी चाहिए जिसमें शोषण या चोरी की गुंजाइश नहीं हो। अस्तेय का एक अर्थ यही निकलता है संविभाग- - अपने अर्जन को यथायोग्य यथा स्थान समान रूप से सबमें बांटो। इसका व्यापक अर्थ यह होगा कि समाज की अर्थ नीति को ही इस तरह ढाले कि सत्ता और सम्पति का एक या कुछ हाथों में संचय न हो सके तथा संविभाग का सिद्धान्त ऐसी व्यवस्था में स्वयं ही साकार रूप ग्रहण कर ले।
(५) अपरिग्रह — अस्तेय व्रत की सम्यक् आराधना में अपरिग्रह व्रत की आराधना भी हो जाती है। मनुष्य स्वयं व्रत ले कि वह सत्ता और सम्पत्ति का संचय नहीं करेगा तथा परिग्रह प्राप्ति के लिये मूर्छित नहीं बनेगा । वह परिग्रह को अपनी आवश्यकता के अनुसार ही रखेगा तथा उपभोग—परिभोग की वस्तुओं की मर्यादा भी ग्रहण करेगा । अपरिग्रह व्रत के प्रति निष्ठा पहले भाव रूप में जागनी चाहिये ताकि मूर्छा के अभाव में उसका द्रव्य रूप स्वतः ही सध जायगा । अपरिग्रही निर्ग्रथ हो जाता है।
(६) सम्यक् दर्शन – दर्शन का अर्थ होता है देखना अतः सम्यक् रीति से देखने का नाम सम्यक् दर्शन है। दर्शन आस्था का आधार होता है अतः सम्यक् आस्था के साथ जो ज्ञानार्जन किया जाता है, वही सम्यक् ज्ञान का रूप लेता है । सम्यक् दर्शन से समभाव उमड़ता है, समदृष्टि बनती है तथा अन्ततोगत्वा जीवन के सम्पूर्ण आचरण में समता का समावेश हो जाता है । दर्शन सम्पन्नता की पृष्ठभूमि पर ही ज्ञान की ज्योति जलती है तथा वही दर्शन परिपूर्ण बन कर क्षायिक सम्यक्त्व का स्वरूप धारण करता है सम्यक् दर्शन के बिना आत्मा का पराक्रम शुद्ध नही बन सकता है। इसी कारण सम्यक् दर्शन को मोक्ष का प्रथम सोपान कहा गया है जिस पर चढ़ कर आत्मा आगे के सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र के सोपानों पर आरूढ़ होती है ।
(७) सम्यक् ज्ञान – सम्यक् आस्था युक्त ज्ञान सदा आचरण की प्रेरणा देता है। इसीलिये ज्ञान और क्रिया के सफल संयोग से ही मोक्ष का द्वार खुलता है । सम्यक् आस्था के साथ सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति सरल बनती है । ज्ञानी आत्मा — यथा स्थान स्व- पर कल्याण को ही अपना परम उद्देश्य
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