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नहीं बिगड़ता है। आत्मा तो नित्य, समदर्शी तथा ज्योतिर्मय होती है। जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, भोग, ह्रास या वृद्धि आत्मा के गुण नहीं हैं -ये तो कर्म के परिणाम होते हैं। इसी प्रकार माता पिता, स्त्री पुत्र इस आत्मा के नहीं है और आत्मा भी इनकी नहीं है। यह जीवन तो उस वृक्ष के समान है जहां पर संध्या के समय अलग-अलग स्थानों से कई पंछी पंखेरू आकर मिलते हैं और रात्रि वास तक ठहरते हैं। स्वजनों का संयोग भी इसी रूप में अल्प समय के लिये होता है। प्रत्येक जन्म में इस आत्मा के साथ अन्य कई आत्माओं का संयोग तथा सम्बन्ध होता है किन्तु उन सबसे यह आत्मा अलग भी हो जाती है।
संयोग के साथ वियोग है—यह विचार करके मुझे अपने स्वजन-सम्बन्धियों के मोह ममत्त्व से दूर हटना चाहिये। मुझे सोचना चाहिये कि जिनके लिये मैं प्रत्यन करता हूं, जिनसे मैं डरता हूं, जिनसे मैं प्रसन्न रहता हूं, जिनका मुझे शोक होता है, जिन्हें मैं हृदय से चाहता हूं, जिन्हें पाकर मैं परम प्रसन्न हो जाता हूं और जिनमें मैं अपनी गाढ़ी आसक्ति बनाकर अपने विशुद्ध स्वभाव को अपरूप बना लेता हूं- वे सब पराये हैं, मेरा अपना कोई भी नहीं। पर-पदार्थों में ममत्व भाव धारण करके मेरी विपरीत वृत्ति बन गई है। मैं आत्मा के उत्थान मार्ग को पतन का मार्ग तथा पतन के मार्ग को उत्थान का मार्ग समझने लग गया है। इस कारण मैं अपने यथार्थ कर्त्तव्य को भूल गया हूं तथा उसके सम्यक् निर्धारण के उपयोग से भी शून्य बना हुआ हूँ। मैं विचार करता हूं कि मुझे अपने उन्मार्ग को समझ कर वास्तविक आत्म विकास की ओर अग्रसर बनना चाहिये।
चारों ओर गंदगी ही गंदगी है इस संसार में मैं जिधर भी देखता हूं, उधर गंदगी ही गंदगी दिखाई देती है। औरों को तो छोडूं —मेरा खुद का शरीर भी कितना गंदा और अशुचिपूर्ण है ? यह शरीर मांस, रुधिर, अस्थि जैसे घृणित पदार्थों के संयोग से बना है। माता के गर्भ में भी अशुचिपूर्ण पदार्थों के आहार के द्वारा ही इसकी वृद्धि हुई है। उत्तम, स्वादिष्ट और रसपूर्ण पदार्थों का भोजन भी इस शरीर के भीतर पहुंच कर घोर अशुचि के रूप में परिणत हो जाता है। नमक की खान में जो भी वस्तु गिरती है, वह नमक बन जाती है। इस शरीर में कितनी ही सरस वस्तुएं पहुंचावें तब भी वे शरीर के अशुचि धर्म के अनुसार गन्दगी का ढेर बन जाती हैं। आँख, कान, नाक आदि सभी नव मल द्वारों से सदा मैल बहता रहता है। इस शरीर को स्वच्छ, सुगन्धित तथा सुन्दर बनाने के लाखों उपाय किये जाते हैं, फिर भी वह अपने अशुचिपूर्ण स्वभाव को छोड़ता नहीं है। निर्मल से निर्मल साधनों को भी वह मलिन बना देता
है।
मैं शान्त और स्थिर बुद्धि से विचार करता हूं तो स्पष्ट हो जाता है कि मेरे शरीर का प्रत्येक अवयव और स्वयं सारा शरीर घृणाजनक पदार्थों से भरा पड़ा है। वह एक नहीं, अनेक रोगों का घर है। मेरा आज का सुन्दर और स्वस्थ शरीर कल कुरूप और जर्जरित हो जाता है। क्या यह परिवर्तन मेरे लिये सचेतक नहीं है ? मुझे सोचना चाहिये कि मेरा यह शरीर चमड़ी से ढका हुआ है, वरना सड़ी हुई लाश-सी दुर्गंध भरा हुआ कर्कश हड्डियों का ठठ्ठर मात्र है। ऐसा गंदगी से भरा हुआ शरीर मेरे लिये प्रीतियोग्य कैसे हो सकता है ? शरीर को गंदगी ही गंदगी का समूह समझते हुए मुझे शरीर पर से अपना मोह घटाना चाहिये। शरीर को सुन्दर, निर्मल तथा बलवान बनाने की भ्रान्ति के पीछे आत्म-विकास की उपेक्षा करना मेरे लिये समुचित नही है तथा न ही यह समुचित है कि मैं अपने इस सदामलिन शरीर के सुख के लिये अपनी भव्य आत्मीय शक्तियों का अपव्यय करता रहूं।
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