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एकत्त्व की अवधारणा
मैं सांसारिक परिस्थितियों की गहराई में उतरता हूं तो देखता हूं कि मेरी आत्मा अकेली उत्त्पन्न हुई है और अकेली ही इस जीवन का त्याग करेगी । कर्मों का बंध भी मेरी आत्मा अकेली ही करती है तथा उदय में आने पर उन कर्मों का फल भोग भी वह अकेली ही करती है। मेरे स्वजन, मित्र आदि कोई भी मेरे कर्म फल से उत्पन्न मेरे दुःखों को स्वयं नहीं ले सकते हैं। सच पूछें तो इस संसार में वस्तुतः स्वजन कोई भी नहीं है । मृत्यु के समय स्त्री विलाप करती हुई काल प्रवाह में पति को भूल जाती है तो ममता की मूर्ति माता भी अपने बेटे के शव को घर के दरवाजे से बाहर कर देती है । सम्बन्धी और मित्र भी श्मशान पहुंच कर अपने आत्मीय के शरीर को चिता पर रखकर अग्नि दे देते हैं। कहिए कोई जाता है मृत व्यक्ति के साथ में ? फिर कैसे कहेंगे उन्हें स्वजन ?
मैं देखता हूँ कि मनुष्य इन्हीं स्वजनों के लिये अपने जीवन में भांति भांति के पाप कार्यों को करता हुआ थकता नहीं है। उन्हीं के सुख और आनन्द के लिये दूसरों पर अन्याय और अत्याचार करते हुए वह संकोच नहीं करता । घोर पाप कर्मों का बंध करके वह सम्पत्ति अर्जित करता है जिसे उसके प्रियजन अपना अधिकार मान कर भोगते हैं लेकिन जब उन्हीं कर्मों का दुःखपूर्ण फल उदय में आता है तब उन प्रियजनों में से कोई भी फल भोग में साथ नहीं देता । जन्म और मृत्यु के समय आत्मा की एकता को प्रत्यक्ष करते हुए भी वह पर-पदार्थों को अपना समझता है—यह देखकर ज्ञानी महात्मा भान दिलाते हैं कि इन्द्रिय-सुखों में ममत्त्व रखना, उनका संयोग होने पर हर्षित होना और वियोग होने पर दुःख करना मोह की विडम्बना मात्र है ।
एकत्व भावना के संदर्भ में मेरा चिन्तन चलता है कि यह जीव अकेला ही अप्सराओं के मुख रूपी कमल के लिये भ्रमर रूप स्वर्ग का देवता बनता है। अकेला ही तलवारों से छेदा जाकर नरक में अपना खून बहाता है। विषय कषायों से लिप्त होकर वह अकेला ही पाप कर्मों का बंध करता है । और उतना ही यह भी सत्य है कि अपना दृढ़ संकल्प बना लेने के बाद वह अकेला ही कर्मों के सभी आवरणों को दूर करके आत्म विकास की महायात्रा को सफल भी बनाता है। अतः परस्त्री को पत्नी समझना जिस रूप में भयावह है, उससे भी अधिक भयावह है परपदार्थों में ममत्त्व रखना, क्योंकि इसी से राग और द्वेष की मलिनता बढ़ती है जो संसार की जड़ है। यह समझ कर मैं पर पदार्थों में अपना ममत्त्व घटाऊंगा, राग-द्वेष को मिटाऊंगा तथा एकत्त्व भावना को भाऊंगा ।/
शरीर और आत्मा की भिन्नता
मैं कौन हूं? मेरे माता-पिता आदि सम्बन्धी मेरे कौन होते हैं ? इनका सम्बन्ध मेरे साथ कैसे हुआ? यह विलास और वैभव सामग्री मुझे कहां से मिली ? इन प्रश्नों के मूल में मैं जाता हूं तो मुझे ज्ञान होता है कि ये सब आत्मा से सम्बन्धित नहीं है— मात्र इस शरीर से सम्बन्धित हैं, कारण, शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं । शरीर नाशवान होता है और आत्मा अनश्वर । शरीर पुद्गलों का समूह है तो आत्मा ज्ञानपुंज । शरीर मूर्त है, इन्द्रियों का विषय है और अशाश्वत है लेकिन आत्मा मूल में अमूर्त, इन्द्रियातीत तथा शाश्वत होती है । शरीर और आत्मा का सम्बन्ध कर्म वश बना हुआ है। इसलिये इस शरीर को ही आत्मा मान लेना भ्रान्तिपूर्ण है – यह अन्यत्त्व भावना है । शरीर अन्य है और आत्मा अन्य है । 'मैं' जो हूं वह आत्मा हूं, शरीर नहीं । अतः मैं शरीर के कृश होने पर शोक न करूं क्योंकि शरीर के कृश होने अथवा नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का कुछ
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