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वीतराग देवों ने त्याग को सर्वोच्च स्थान दिया है, इसीलिये पंच महाव्रतधारी साधुओं का स्थान सबसे ऊंचा है। उपरोक्त भावनाएं मुख्यतः साधु जीवन को लक्ष्य करके कही गई है। ये भावनाएं प्रधान रूप से नियमों की संस्मृति रूप ही हैं। अपने-अपने त्याग के अनुरूप दूसरी भी बहुत सी भावनाएँ हैं जिनसे भाव शुद्धि तथा व्रतपालन में सहायता मिलती है। पाप रूप अशुभता से निवृत्ति के लिये इन नियमों की भावना भाई जा सकती है—(१) हिंसा आदि पापों में ऐहिक तथा पारलौकिक अनिष्ट देखना। (२) हिंसा आदि दोषों में दुःख ही दुःख है -इस प्रकार बार-बार चित्त में भावना भाना। (३) प्राणी मात्र में मैत्री अधिक गुणी को देखकर प्रमुदित होना दुःखी को देखकर करुणा लाना तथा कदाग्रही या अविनीत को देखकर मध्यस्थ भाव रखना। (४) संवेग और वैराग्य के लिये संसार और शरीर के स्वभाव का चिन्तन करना।
महाव्रतों की स्थिरता के लिये त्याग का बारम्बार स्मरण चिन्तन भी आवश्यक है तो उस के दोषों का सम्यक् ज्ञान भी उतना ही आवश्यक है क्योंकि दोषों के बारे में पूरी जानकारी हो जाने से त्याग की रुचि उत्तरोत्तर बढ़ती है। इसलिये अहिंसा आदि पांचों व्रतों के दोषों को बार-बार देखते रहना चाहिये। यह दोष दर्शन दो प्रकार का होता है ऐहिक एवं पारलौकिक। हिंसा करने. झठ बोलने, चोरी करने आदि का दुष्परिणाम इस जीवन में कैसे उठाना पड़ेगा—यह होगा ऐहिक दोष दर्शन तथा हिंसा, झूठ आदि से नरक आदि गतियों में जाना पड़ेगा यह देखना पारलौकिक दोष दर्शन है। इन दोनों संस्कारों को आत्मा में दृढ़ बनाना भावना है। यह शुभ भावना है।
इसके विपरीत पांच अशुभ भावनाएं भी बताई गई है जिनका त्याग करना चाहिये। वे इस प्रकार हैं।
(१) कन्दर्प भावना-पांच प्रकार -(अ) कन्दर्प अट्टहास, हंसी मजाक करना, कठोर या वक्र वचन कहना, काम कथा, उपदेश या प्रशंसा करना। (ब) कौत्कुच्य –भांड की सी वचन और काया से कुचेष्टाएं करना । (स) दुःशीलता—दुष्ट स्वभाव बनाना, आवेश में बोलना, मदमस्त बैल की तरह चलना, जल्दबाजी करना आदि। (द) हास्योत्पादन- विचित्र वेश व भाषा से दूसरों को हंसाना और खुद हंसना । (य) पर-विस्मयोत्पादन विविध प्रकारों से दूसरों को विस्मित करना ।
(२) किल्विषी भावना-पांच प्रकार (अ-य) श्रुत ज्ञान, केवली, धर्माचार्य, संध और साधु का अवर्णवाद बोलना, उनमें अविद्यमान दोष बतलाना आदि । मायावी होना भी इसी प्रकार में सम्मिलित है।
(३) आभियोगी भावना—पांच प्रकार –(अ) कौतुक—मंत्र, तंत्र, धूप, आदि देना। (ब) भूतिकर्म–शरीर, पात्र, आदि की रक्षा के लिये मिट्टी, सूत आदि से उन्हें लपेटना। (स) प्रश्न–लाभ-अलाभ के प्रश्न पूछना या अंगूठी, दर्पण, पानी आदि में स्वयं को देखना। (द) प्रश्नाप्रश्न—स्वप्न में आराधी हुई देवी की कही बातों को दूसरों को कहना। (य) निमित्त-अतीत, वर्तमान एवं अनागत का ज्ञान विशेष रखना।
(४) आसुरी भावना-पांच भेद -(अ) सदाविग्रहशीलता—हमेशा लड़ाई-झगड़े करते रहना । (ब) संसक्त तप–आसक्त साधु का तप करना। (स) निमित्त कथन-तीन काल की नैमेत्तिक बातें बताना। (द) निष्कृपता स्थावर जीवों को अजीव मानना, उनके प्रति दयाभाव की उपेक्षा करना तथा किसी के कहने पर अनुताप भी नहीं करना । (य) निरनुकम्पता –दुःखी के प्रति क्रूरता जन्य कठोरता धारण करना।
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