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सम्बन्धों पर गहराई में उतर कर चिन्तन करना। भावना भाते हुए यह ध्यान रखना कि इस रूप में किये जा रहे चिन्तन में आत्म स्वरूप एवं जड़ सम्बन्धों की यथार्थ स्थिति का गूढ़ अनुसंधान हो तथा धार्मिक अनुष्ठान की योग्य भूमिका का निर्माण हो। भावना का दूसरा नाम अनुप्रेक्षा भी है जिसका अर्थ होता है—आत्मावलोकन । अपने आत्म स्वरूप पर अर्थात् अपने मन, वचन, काया के योग व्यापार पर बराबर दृष्टि रखना कि वह सदा शुभता की ओर बढ़े—यही भावना का प्रमुख लक्ष्य माना गया है।
_ मैं इस उक्ति का ध्यान करता हूं कि 'जिसकी जैसी भावना, वैसी ही उसकी सिद्धि' तो मैं समझ जाता हूं कि भावना आत्म-विकास का वह आधार है जो यदि शुद्ध बन गया तो सम्पूर्ण विशुद्धता की प्राप्ति फिर कठिन नहीं रह जायगी। पांचों मुख्य व्रतों (महाव्रतों) की स्थिरता के लिये भी प्रत्येक की पांच पांच भावनाओं का उल्लेख मिलता है, जो इस प्रकार है -
(१) अहिंसा महा व्रत-पांच भावनाएं- (अ) इर्या समिति-स्व व पर को क्लेश न हो वैसी यतनापूर्वक गति करना। (ब) मनोगुप्ति—मन को अशुभ ध्यान से हटाना तथा शुभ ध्यान में लगाना। (स) एषणा समिति—किसी वस्तु की गवैषणा ग्रहण और उपभोग तीनों में उपयोग रखकर दोष नहीं लगाना। (द) आदान निक्षेपणा समिति-वस्तु को उठाने और रखने में अवलोकन, प्रमार्जन आदि द्वारा यतना रखना। (य) आलोकित पानभोजन, खाने की वस्तु बराबर देखभाल कर लेना और उपयोग पूर्वक खाना।
(२) सत्य महा व्रत-पांच भावनाएं- (अ) अनुवीचि भाषण-विचारपूर्वक बोलना। (ब) क्रोध प्रत्याख्यान क्रोध का त्याग करना। (स) लोभ प्रत्याख्यान-लोभ का त्याग करना। (द) निर्भयता –सत्य मार्ग पर चलते हुए किसी से नहीं डरना। (य) हास्य प्रत्याख्यान-हंसी दिल्लगी का त्याग करना।
(३) अस्तेय महा व्रत-पांच भावनाएं- (अ) अनुवीचि अवग्रह याचन—विचारपूर्वक आवश्यकता निश्चित करना और उतनी ही वस्तु की याचना करना। (ब) अभीक्ष्णावग्रह याचनआवश्यकतानुसार वस्तु को बार-बार मांगना। (स) अवग्रहावधारण-याचना के पहले परिमाण का निश्चय कर लेना। (द) साधर्मिक अवग्रह याचन—पहले साधर्मिक से स्थान का उपयोग मांग लेना। (य) अनुज्ञापित पानभोजन-विधिपूर्वक अन्न पान आदि लाकर गुरु को दिखाना तथा उनकी आज्ञा होने पर उपयोग में लेना।
(४) ब्रह्मचर्य महा व्रत-पांच भावनाएं-(अ) स्त्री पशुपंडकसेवित शयनासनवर्जन-विजातीय लिंग वाले व्यक्ति द्वारा काम में लिये शय्या और आसन का त्याग करना। (ब) स्त्री कथावर्जन-रागपूर्वक कामवर्धक बातें नहीं करना। (स) मनोहर इन्द्रियालोक वर्जन-विजातीय व्यक्ति के कामोद्दीपक अंगों को नहीं देखना। (द) स्मरणवर्जन—पहले भोगे हुए काम भोगों को स्मरण नहीं करना । (य) प्रणति रस भोजन वर्जन-कामोद्दीपक रसीले या गरिष्ठ भोजन तथा पेय का त्याग करना।
(५) अपरिग्रह महा व्रत-पांच भावनाएं -(अ) मनोज्ञामनोज्ञ स्पर्श समभाव -अच्छा या बुरा लगने के कारण राग या द्वेष पैदा करने वाले स्पर्श पर समभाव रखना। (ब-य) इसी प्रकार रस, गंध, रूप तथा शब्द के मनोज्ञामनोज्ञ अनुभव पर समभाव रखना।
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