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छः काया के समस्त जीवों की रक्षा में उदार बनूंगा तो पहले मेरी ही आचार-विचार सम्बन्धी विशृंखलताएं दूर होगी और मैं सत्य-दर्शन के समीप पहुंचने लगूंगा।
इसका यह स्पष्ट अर्थ है कि दूसरे प्राणियों को कम या ज्यादा लाभ पहुंचे परन्तु मुझे तो अत्यधिक लाभ मिलेगा। मेरा विश्वास है कि सुमर्यादित लोकोपकार की विशुद्ध भावना ही मुझे महान् बना सकती है। लोकोपकार का क्षेत्र इतना व्यापक और इतने प्रभाव वाला होता है कि बाहर के संसार में भी अच्छाई फैलती है और भीतर के आन्तरिक संसार में भी नित नये-नये आत्मीय गुणों का विकास होता हुआ चला जाता है।
लोकोपकार की महत्ता को समझने के लिये मैं श्रावक के पहले अणुव्रत अहिंसा का ही उदाहरण दूं। श्रावक स्थूल हिंसा का त्याग करता है और साधु सम्पूर्ण हिंसा का । श्रावक के हिंसा त्याग का स्वरूप क्या ? अपराधी को छोड़ शेष द्विन्द्रिय आदि त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का दो करण तीन योग से त्याग। इस अहिंसा अणुव्रत को ग्रहण कर श्रावक तो शुभता प्राप्त करेगा, किन्तु इस हिंसा-त्याग का सीधा लाभ किनको प्राप्त होगा? उन द्विन्द्रिय आदि त्रस जीवों को यदि श्रावक पहला अणुव्रत ग्रहण नहीं करता तो वे जीव उसके हाथों प्राणघात पाते। इसका अर्थ यह लीजिये कि पर कल्याण के साथ ही, बल्कि उसकी साधना से ही स्व-कल्याण की साधना संभव बनती है। अतः आत्म कल्याण के नाम पर लोकोपकार को अलग नहीं किया जा सकता है बल्कि लोकोपकार को गहरा बनाते जाने पर ही स्व-कल्याण का मार्ग सुगम बनता जाता है।
___ व्यक्ति समाज में रहता है और न केवल अन्य व्यक्तियों के बल्कि पशु पक्षियों आदि स्थूल
पी. पानी आदि सक्ष्म प्राणियों के भी सम्पर्क में वह रात-दिन आता है। इस दष्टि से व्यक्ति का न सामाजिक सव्यवस्था को बल देने वाला हो यह आवश्यक है। व्यक्ति के जीवन में सधार का पहला दृष्टिकोण इसी आशय का रहता है। इसी तथ्य को इस भाषा में भी कह सकते हैं कि सम्यक लोक कल्याण की उच्चतम साधना में ही आत्म-कल्याण की उत्कृष्टता भी समा जाती है और जो जितना बड़ा लोकोपकारी हो जाता है, वह उतना ही महान् भी कहलाता है। क्योंकि श्रावक स्थूल हिंसा का ही त्याग करता है उसका व्रत छोटा व्रत (अणुव्रत) कहलाता है किन्तु साधु सम्पूर्ण हिंसा का त्याग करके सभी स्थूल एवं सूक्ष्म प्राणियों (छः काया) का रक्षक भी बनता है, अतः उनका व्रत महाव्रत कहलाता है। तो यह 'अणु' और 'महा' इसी सत्य पर बने हैं कि आपका लोक कल्याण का क्षेत्र कहां तक विस्तार पा गया है ? इस प्रकार मैं समझ गया हूं कि मेरी महानता का मार्ग लोक कल्याण के अहर्निश प्रयासों में सन्निहित है।
स्व-पर कल्याण की शुभ प्रवृत्ति मेरे आत्म स्वरूप के साथ शुभ कर्मों को संलग्न करेगी। शुभ कर्मों के फलोदय से शुभ संयोगों की प्राप्ति होगी, जिनकी सहायता से मेरी आत्मविकास की महायात्रा आसान बन जायगी। पाप की तरह पुण्य भी कर्म पुंज ही होता है, लेकिन पाप कर्मों के फल से दुर्योग मिलते हैं और पुण्य कर्मों के फल से शुभ संयोग। साध्य तक पहुंचने के लिये शुभ संयोगों की भी आवश्यकता होती है। जैसे मार्ग में आई हुई नदी को पार करनी है तो नाव की जरूरत होगी। यद्यपि उस किनारे पर पहुंच जाने के बाद नाव भी छोड़नी पड़ेगी, फिर भी किनारे तक पहुंचने के लिये नाव की सहायता अनिवार्य है। वैसे ही पुण्य कर्म मोक्ष तक पहुंचाने में नाव के समान सहायक होता है। इस रूप में कर्म बंध, कर्म क्षय एवं कर्म मुक्ति की प्रक्रिया को समझ लेना चाहिये।
एन एली
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