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भी बिगाड़ लेता हूं। परिणामस्वरूप प्रतिकूल परिस्थितियों से सफल संघर्ष करने का मेरा सन्तुलन भी बिगड़ जाता है। ऐसी दुर्बल बनी मनोदशा में भूल पर भूल करते हुए चले जाना जैसे मेरा स्वभाव बन जाता है । ऐसी अवस्था में कभी-कभी हताशा मुझे इतनी बुरी तरह से झकझोर डालती है कि मैं अपने हाथों में लिये हुए सत्कार्य को छोड़ बैठता हूँ। जब दुःखों का क्रम चल पड़ता है तो मैं अपना धीरज भी छोड़ बैठता हूँ और रोने-चिल्लाने लग जाता हूँ। उस दबी हुई विचार स्थिति में मैं यही समझने लग जाता हूँ कि बाह्य निमित्त ही मुझे दुःख देने वाले हैं। इसीलिये मैं बाह्य परिस्थितियों तथा उनके निमित्त बनने वाले व्यक्तियों को कोसता और दोष देता हूँ। इस सम्बन्ध में मैं अब समझ गया हूँ कि यह व्यर्थ का दोषारोपण मुझे व्यर्थ के क्लेश में फंसा देता है और उस रूप में मैं अपने लिये व्यर्थ ही में एक नये दुःख को खड़ा कर लेता हूँ। इस प्रकार की विशृंखलित मनःस्थिति में यह कर्मवाद का सिद्धान्त मेरा सच्चा शिक्षक बन जाता है और मुझे पथभ्रष्टता से बचाता है कि हे आत्मन्, तू अपना भ्रम छोड़ दे और इस सत्य को समझले कि तू ही अपने भाग्य का प्रणेता है। सुख और दुःख तेरे अपने ही किये हुए हैं। कोई भी बाह्य शक्ति न तुझे सुखी बना सकती है और न दुःखी। जैसे वृक्ष के अस्तित्व का मूल कारण बीज होता है तथा पृथ्वी, पवन, पानी तो उसके निमित्त मात्र होते हैं। उसी प्रकार दुःख का बीज तेरे अपने पूर्वकृत कर्मों में रहा हुआ है और ये बाह्य व्यक्ति या साधन तो निमित्त मात्र हैं। न इनको क्लेशित कर और न स्वयं क्लेशित बन । अपनी आत्मशक्ति को ही जगा कि वह उस बीज को समाप्त कर दे—फिर कोई दुःख नहीं रह जायेगा।
यह शिक्षा और चेतावनी जब मुझे कर्मवाद के सिद्धान्त से मिलती है तब मैं सावधान हो जाता हूँ और अपने विश्वास को दृढ़ बना लेता हूं। तब दुःख और विपत्ति के समय मेरा आकुल व्याकुल होना घट जाता है और विवेक भी जागता रहता है। फिर मैं अपने दुःखों के के लिये न दसरों को दोष देता हैं और न उन्हें क्लेशित करता हैं। मैं तब अपने आपको निराशा के अंधकार में डबने से भी बचा लेता हूँ। मुझे दुःखों को सहने की ऐसी शक्ति मिल जाती है कि दुःख के पहाड़ टूट पड़ें तब भी मैं अपने हृदय की शान्ति तथा बद्धि की स्थिरता को बनाये रखता हैं और प्रतिकल परिस्थितियों का धैर्य के साथ सामना करने में कुशल बन जाता हूँ। पुराना कर्ज चुकाने वाले की तरह मैं शान्त
से कर्मों का ऋण चकाता हूँ तथा कर्म-फल को उसी शान्त भाव से सह लेता है। अपनी प्रत्यक्ष भल से होने वाली बड़ी से बड़ी हानि को जिस प्रकार मैं शान्त भाव से सह लेता हूँ, वही सहनशीलता मैं कर्म फल भोगने में भी स्थिर रख लेता हूँ। फिर अपने भूतकाल के अनुभवों से मैं अपने भविष्य-निर्माण के प्रति सजग बन जाता हैं। इस प्रकार सख और सफलता में संयत रहने की मझे ऐसी शिक्षा मिलती है कि मैं अपनी आत्मा को किसी भी परिस्थिति में अनियंत्रित. उच्छंखल या उदंड बन जाने से बचा लेता हूँ।
आत्माओं की समानता के संदर्भ में मैं यह समझ गया हूँ कि मैं विकास की इस प्रक्रिया में स्वयं घनिष्ठता से जुडूं तथा अपने सम्पर्क में आने वाले सभी प्राणियों को भी इस प्रक्रिया से जुड़ने की अनुप्रेरणा दूं।
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तुच्छता बनाम पुरुषार्थ तुच्छता और हीनता उस मनःस्थिति का नाम है, जब मनुष्य में अमुक-अमुक कार्य करने की शक्ति तो नहीं होती, किन्तु वह वैसी शक्ति का अपने में सद्भाव मान कर अहंकार से भर जाता है। उसका अहंकार थोथा होता है और थोथा चणा, बाजे घणा की उक्ति के अनुसार उसकी वह
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