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के प्रति जो मेरी हीन-भावना है, वह स्वार्थवश है और जब धर्म की सच्ची आराधना से स्वार्थपूर्ण मेरा, ममत्व घटेगा, तो मेरी आन्तरिकता में सबके प्रति उदार भाव का संचार होगा। यह उदार-भाव एक ओर मेरी त्याग वृति को उभारेगा तो दूसरी ओर मेरे त्याग को दूसरे प्राणियों के प्रति सहानुभूति एवं सहयोग के रूप में नियोजित करने की प्रेरणा प्रदान करेगा। मेरा त्याग भाव जितने अंशों में प्रबलता ग्रहण करता जायगा, लोकोपकार एवं लोक कल्याण में मेरी वृत्ति और प्रवृत्ति गहरी होती जायगी। - मेरा अनुभव है कि जब मैं लोकोपकार के कार्यों में तल्लीन होता जाऊंगा तो मेरा 'मैं' विराट स्वरूप लेता जायगा. तब 'मैं' मात्र 'मैं' में ही सीमित नहीं रह जाऊंगा बल्कि मेरा 'मैं: सम्पूर्ण विश्व में विस्तृत हो जायगा तथा सम्पूर्ण प्राणियों की आत्माओं के साथ मंत्री भाव में समा कर एकाकार-सा हो जायगा। वह मेरी हीन भावना के विसर्जन की अवस्था होगी।
आत्मीय समानता का संदेश मेरी गूढ़ वैचारिकता जब कर्म सिद्धान्त के मर्म में गहरे पैठती है तो मेरा यह अनुभव होता है कि इस सिद्धान्त के साथ ही आत्माओं की समानता तथा महानता का सन्देश जुड़ा हुआ है। मेरी अनुभूति स्पष्ट होती है कि मेरी आत्मा किसी रहस्यपूर्ण शक्तिशाली व्यक्ति की शक्ति या इच्छा के अधीन नहीं है एवं अपने संकल्पों तथा अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिये मुझे किसी का भी दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं है। अपने पापों का नाश करने के लिये और अपने उत्थान के लिये मुझे किसी भी शक्ति के आगे न तो दया की भीख मांगने की आवश्यकता है और न ही उसके आगे रोने या गिड़गिड़ाने की आवश्यकता है।
मेरे सामने कर्मवाद का यह मंतव्य साफ हो जाता है कि संसार की सभी आत्माएं एक समान हैं तथा सभी आत्माओं में एक समान ही शक्तियां रही हुई हैं। इस संसार में सभी आत्माओ के बीच में जो भेद-भाव दिखाई देता है, वह उनकी मूल शक्तियों के कारण नहीं अपितु उन शक्तियों के न्यूनाधिक विकास के कारण है। यह विकास अपने अपने पुरुषार्थ पर निर्भर होता है।
आत्मिक विकास की चरम सीमा का भी मुझे ज्ञान हो गया है कि मैं आत्मा हूं और मुझे परमात्मा बनना है। आत्मा और परमात्मा की स्थिति के बीच जो अन्तर है वही कर्मों के आवरण हैं। कर्मों के इन बादलों को अगर मैं छांटकर हटा दूं तो फिर मेरी आत्मा रूप सूर्य को प्रकट होने से कौन रोक सकता है ? यह सूर्य रूप ही सिद्ध रूप का प्रतीक है। आज मेरी आत्म-शक्तियां विभिन्न कर्मों से आवृत्त बनी हुई हैं, अविकसित हैं एवं परिग्रह से मूर्छाग्रस्त हैं। मुझे अपने ही आत्मबल को विकसित बनाकर अपनी इन शक्तियों का विकास करना है। इसी विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच कर मैं परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर सकता हूँ। अपने इस पूर्ण विकास के लक्ष्य को स्थिर बनाने में मुझे कर्मवाद से ही अपूर्व प्रेरणा मिलती है।
मैं महसूस करता हूं कि अन्य प्राणियों के समान मेरा जीवन भी विघ्न-बाधाओं, दुःखों व आपत्तियों से भरा हुआ है। जब ये मुझे घेर लेती हैं तो मैं घबरा उठता हूं और मेरी बुद्धि अस्थिर बन जाती है। मैं दो पाटों के बीच में फंस जाता हूं क्योंकि एक ओर तो बाहर की प्रतिकूल परिस्थितियाँ मुंह बाए खड़ी होती हैं, तो दूसरी ओर चिन्तित व तनावग्रस्त बनकर मैं अपनी अन्तरंग अवस्था को
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