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परमात्मा या ईश्वर हो – यह न तो बोध गम्य है और न अनुभव गम्य । कारण, फलस्वरूप विशुद्ध स्वरूपी परमात्मा कभी भी पुनः संसार में आते नहीं और सांसारिकता से संपृक्त बनते नहीं ।
तब प्रश्न पैदा होता है कि फिर संसार का इतना सुव्यवस्थित संचालन कैसे होता है ? उसका उत्तर यह है कि यह संचालन स्वचालित है । जैसे कि ऑटोमेटिक घड़ी होती है तो वह बिना चाबी भरे ही चलती रहती है । हाथ इधर-उधर हिलते रहते हैं और घड़ी के पुर्जे चलते रहते हैं । ऐसा ही इस संसार में होता है । हाथ चलने की तरह जीव एवं अजीव तत्त्व का संयोग चलता रहता है और घड़ी से समय निकलने की तरह उस संयोग की हलचलों का फलाफल निकलता रहता है । इसे यों कहें कि मैंने एक क्रिया की तो उसके प्रभाव रूप उस तरह के कार्माण वर्गणा के पुद्गल मेरे आत्म स्वरूप से बंध जाते हैं। फिर स्थिति पकने पर ये पुद्गल अपना शुभ अथवा अशुभ फल देकर ही छूटते हैं या साधना के बल पर उनसे मुक्त हुआ जा सकता है। कर्मों के बंध, उदय और फल का जो यह क्रम चलता रहता है, वही शरीरधारी सभी प्राणियों की स्थिति परिस्थिति तथा वृत्तियों प्रवृत्तियों का कारणभूत बनता है। कर्मों का यह क्रम काफी हद तक सुव्यवस्थित होता है जिसे आत्म जागृति से खंडित किया जा सकता है। असल में कर्मों का यही क्रम सारे संसार का संचालन करता है जो एक प्रकार से स्वचालित होता है । यही कर्मवाद अथवा स्वनिर्मित भाग्यवाद का सिद्धान्त कहलाता है ।
कर्मवाद के इस सिद्धान्त को कुछ गहराई से समझें । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से आत्म प्रदेशों में हलचल होती है तब जिस क्षेत्र में आत्म- प्रदेश हैं उसी क्षेत्र में रहे हुए अनन्तानन्त कर्मयोग्य पुद्गल जीव के साथ बंध को प्राप्त होते हैं। जीव और कर्म का यह मेल ठीक वैसा ही होता है, जैसा दूध या पानी का या अग्नि और लौह पिंड का । इस प्रकार आत्म- प्रदेशों के साथ बंध को प्राप्त कार्माण वर्गणा के पुद्गल ही कर्म कहलाते हैं। या यों कहें कि मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म है। कर्म का यह लक्षण भावकर्म और द्रव्यकर्म दोनों में घटित होता है। आत्मा के राग द्वेषादि रूप वैभाविक परिणाम भावकर्म हैं और कर्म वर्गणा के पुद्गलों का समूह द्रव्य कर्म हैं। राग द्वेषादि के वैभाविक परिणामों में जीव उपादान कारण होता है, इसलिये भाव-कर्म, कर्ता उपादान रूप से जीव है । द्रव्य कर्म में जीव निमित्त कारण है। इसलिये निमित्त रूप से द्रव्य कर्म का कर्त्ता भी जीव ही है। भावकर्म के होने में द्रव्य कर्म निमित्त है और द्रव्य कर्म में भाव कर्म निमित्त है। आपेक्षिक दृष्टि से इस प्रकार द्रव्य कर्म और भाव कर्म इन दोनों का परस्पर बीज और अंकुर की तरह कार्यकारण भाव सम्बन्ध है ।
संसार के सभी जीव आत्म स्वरूप की अपेक्षा से एक से हैं, फिर भी वे पृथक्-पृथक् योनियों में भिन्न-भिन्न शरीर धारण किये हुए हैं और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में विद्यमान हैं। एक ही माँ की कोख से जन्म लेने पर भी तथा एक-सी परिस्थितियों में पले पोसे और शिक्षित हुए दो सगे भाइयों में भी कई बातों का अन्तर दिखाई देता है। यह विचित्रता तथा विषमता बिना किसी कारण के हो—ऐसा नहीं होता । इस सुख-दुःख, सम्पन्नता - विपन्नता अथवा सबलता-दुर्बलता का कोई कारण होना चाहिये जैसे कि अंकुर का कारण बीज होता है। अतः इस विषमता का कारण कर्म ही हो सकता है।
मैं देखता हूँ कि कई लोग इस तथ्य में पूरा विश्वास नहीं करते हैं और दलील देते हैं कि सुख-दुःख के कारण तो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, जैसे माला, शय्या, स्त्री आदि सुख के कारण हैं तो
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