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बना देती है और निर्देश देती है कि इस मृत्योन्मुख मनुष्य को तुरन्त शुभ भावों से उपयोगी सहायता दो । मेरी उस बेहोश पड़े आदमी से कोई जान - पहिचान नहीं, न मेरा उसके साथ कभी कैसा भी व्यवहार पड़ा है—सिर्फ मेरा संसर्ग हुआ उसकी पीड़ाभरी बेहोशी के साथ और इसी संसर्ग ने मेरी सुज्ञता को जगाया और मेरी संवेदनशीलता में कोमल स्पंदन पैदा कर दिये ।
मैं कल्पना करता हूं कि यदि हृदय के साथ आंखें खुली हुई रहे तो ऐसे करुणाजनक दृश्य रात दिन दिखाई दे सकते हैं। एक सुज्ञ पुरुष ऐसा सुकोमल सहायक होता है जो स्वयं की पीड़ा को भी देखता है तो पर-पीड़ा का छोटा-सा दृश्य भी उसे द्रवित बना देता है क्योंकि उसकी संवेदनशीलता सदा प्रवहमान रहती है। मैं अनुभव करता हूं कि अपनी पीड़ा भी दो प्रकार की होती है । एक तो तब जब मुझे कोई अन्य कष्ट पहुंचाता है और दूसरी तब जब मैं किसी अन्य को कष्ट देता हूं। पहली प्रकार की पीड़ा के समय मेरी अज्ञता मुझे उत्तेजित और प्रतिशोध हेतु तत्पर बनाती है किन्तु मेरी सुज्ञतापूर्ण संवेदनशीलता मेरे क्रोध पर मरहम लगाती है और मैं सहनशीलता के साथ शान्त हो जाता हूं। फलस्वरूप मुझे कष्ट पहुंचाने वाला स्वयं पश्चाताप से ग्रस्त हो जाता है। दूसरी प्रकार की पीड़ा मेरे अपने कुकृत्य की पीड़ा होती है । मेरी सुज्ञता मुझे फटकारती हैं कि मैंने ऐसा कुकृत्य क्यों किया ? ग्लानि के उन क्षणों में मेरी संवेदनशीलता मेरी पीड़ा पर अपनी करुणा बरसाती है— मुझे प्रेरित करती है उस व्यक्ति से क्षमा चाहने के लिये, जिसको मैने दुखित किया था और इस प्रकार मेरे और उसके हृदयों में से कटुता निकल जाती है। ऐसे चमत्कार करती ही रहती है मेरी सुज्ञता और मेरी संवेदनशीलता – जो ऐसी करुणा को बारबार बरसाती हुई अधिकाधिक परिपुष्ट होती जाती है।
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यों कहें कि बाह्य जगत् का संसर्ग ही मेरी सुज्ञता एवं मेरी संवेदनशीलता की कसौटी का काम करता है । इसी कसौटी से रगड़ खाकर इसका खरा खोटापन सामने आता है और यह स्वरूप भी सामने आता है कि उनकी, परिपुष्टता कितने टंच की बन गई है। और मेरी आत्मा के साथ मेरे जीवन के साथ बाह्य जगत् का संसर्ग प्रतिपल होता रहता है। प्रतिपल ऐसी परिस्थितियां सामने आती रहती हैं जो मेरी सुज्ञता और संवेदनशीलता का दामन खींचती हैं कि आगे बढ़ो, दुःख की पीड़ा को कम करो अपनी करुणा और सहायता से तथा आवश्यकता समझो तो अपना सब कुछ न्यौछावर कर दो इस सदुद्देश्य के लिये। मैं जानता हूं कि करुणा की कोई सीमा नहीं होती क्योंकि उसकी कोमलता अपार होती है। कई वक्त मैं ऐसी करुणा से द्रवित हो उठता हूं और यथाशक्ति दुःख दूर करने का सत्प्रयास करता हूं किन्तु कई बार ऐसा होता है कि प्रमाद, प्रतिशोध या ऐसी ही किसी विकारग्रस्तता के कारण मैं सामने आई हुई उस पीड़ा को नजरन्दाज कर जाता हूं—अपनी सुज्ञता और संवेदनशीलता को सोई हुई ही रहने देता हूं। यह मेरे हृदय का कठोर व्यवहार होता है, बल्कि यों कहूं कि वह मेरे हृदय की तुच्छता होती । और हृदय जब तुच्छता को पकड़ता है तो मेरा विचार, वचन और मेरा कर्म भी तुच्छ बनता जाता है। यह तुच्छता पनपती है मेरी सुज्ञता और संवेदनशीलता की सुप्तावस्था में। जब मेरी वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में इस प्रकार की तुच्छता का विस्तार होता चला जाता है तो मेरी आन्तरिकता भी निष्करुण हो जाती है, क्योंकि मेरी सुज्ञता का प्रकाश मिट जाता है और मेरी संवेदनशीलता के तार झंकृत नहीं होते ।
तुच्छता जड़ग्रस्तता से
किन्तु ऐसा क्यों होता है ? यही स्थिति और समस्या मेरे मन-मस्तिष्क को मथती रहती है । तब मैं अपनी अन्तर्दृष्टि को जगाता हूं यह देखने के लिये कि मेरे भीतर ऐसा क्या हो रहा है, जिसने
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