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चली जाती हैं। उस जल में अगर शिलाखंड गिर जाय तो समझिये कि सारे सरोवर में हलचल मच जाती है। संवेदनशीलता भी ऐसी ही होती है।
मैं संवेदनशील हूं, इस कारण पीड़ा के मर्म को भलीभांति समझता हूं। मेरी अपनी पीड़ा भी कम नहीं होती है। सोचिये कि एक आदमी उड़ना चाहे और उड़ने के लिये तत्पर हो जाय, तभी उसे ज्ञात हो कि उसके पैरों में तो बेड़ियां पड़ी हुई है—वह उड़ तो क्या, चल भी नहीं सकता है। तो विचार कीजिये कि उसकी उड़ने की उग्र उमंग को बेड़ियों की विवशता किस कदर कुचल देती है ? उसकी उस समय की पीड़ा का अनुभव कीजिये। वैसी ही मेरी अपनी पीड़ा है। मेरा जो मूल आत्मस्वरूप है, ऊर्ध्वगामिता उसका प्रधान गुण है। मैं ऊपर उठना चाहता हूं किन्तु अपने ही कृत कर्मों की मेरे पैरों में पड़ी भारी बेड़ियां जब मुझे अपनी जगह से हिलने तक नहीं देती है तो मैं अपने ही भीतर की भीषण पीड़ा से कराह उठता हूं। तब मेरी संवेदना पर चोट पड़ती है—मेरे सरोवर में हलचल मच जाती है, भावोर्मियां उठती है और मेरी ही करुणा मेरे ऊपर बरसने के लिए आतुर हो जाती है। मेरी करुणा मुझे जगाती है कि उठ और अपने पांवों की बेड़ियों को तोड़-बंधनों को तोड़, तू ऊपर उठ सकेगा।
मेरी सुज्ञता तब मेरी संवेदनशीलता में घुलमिल कर एकाकार बन जाती है -अत्यन्त प्रभावपूर्ण हो जाती है। मुझे जगाने के बाद ही वास्तव में मेरी संवेदनशील सुज्ञता का कार्य और प्रभावक्षेत्र प्रारंभ होता है जो सम्पूर्ण विश्व के विशाल क्षेत्र में प्रसरित हो जाना चाहता है।
सुज्ञता और संवेदनशीलता सच पूछे तो जब सुज्ञता होती है, तब ही संवेदनशीलता आती है और संवेदनशीलता की गूढ़ता के साथ सुज्ञता की प्रखरता बढ़ती जाती है। मेरे अन्तःकरण में सुज्ञता और संवेदनशीलता की अजस्र धारा प्रवाहित हो रही है। सुज्ञता मुझे सबका हित जानने की प्रेरणा देती है तो संवेदनशीलता उस हित को साधने के लिये मुझे तत्पर बनाती है। ज्ञान और क्रिया का सजीव साम्मिश्रण हो जाता है जो मुझे स्व-पर कल्याण हेतु जागृत और सक्रिय बना देता है।
मैं जानता हूं कि मैं सुज्ञता और संवेदनशीलता का स्फटिक सरोवर हूं किन्तु मैं यह भी जानता हूं कि अभी मैंने उस सरोवर को आवृत्त कर रखा है—प्रभावहीन बना रखा है। इस कारण मुझे देखना है कि मेरी सुज्ञता कैसे जागे –मेरी संवेदनशीलता कैसे स्पन्दित हो ?
यह सही है कि सुज्ञता और संवेदनशीलता का अपार कोष अन्तरात्मा में भरा पड़ा है, किन्तु वह अनेकानेक आवरणों से बंधा हुआ है। इस कारण सुज्ञता का मुक्त प्रसार नहीं दिखाई देता व संवेदनशीलता का मुक्त संचार भी दिखाई नहीं देता फिर भी कुछ कारण ऐसे रहते हैं जिनमें यदि मेरी चेतना की जागृति बनी रहे तो इन दोनों गुणों का सुप्रभाव बाहर प्रकट होता रहता है। मैं अकेला नहीं रहता हूं, समाज में रहता हूं, जहां अन्य लोगों के साथ तो मेरा संसर्ग होता ही है किन्तु छोटे बड़े प्राणी भी मेरे सम्पर्क में आते हैं। यह सामाजिक सम्पर्क ऐसा होता है जो किसी न किसी रूप में हर समय मौजूद रहता है। यह संसर्ग मेरे व्यवहारगत भी होता है तो अव्यवहारगत भी। जैसे मैं सड़क पर चला जा रहा हूं, मैंने देखा कि सड़क के किनारे एक आदमी बेहोश पड़ा हुआ है। उसके मुंह से झाग निकल रहे हैं। उसका जीवन खतरे में दिखाई देता है। मेरी सुज्ञता मुझे खड़ा कर देती है और स्थिति का अनुमान लगाने को कहती है। मेरी संवेदनशीलता मेरे हृदय को द्रवित
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