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कर्मों से सम्पूर्ण मुक्ति की मैं कामना करता रहता हूं। इस कारण मेरी समग्र क्रियाएं संयमनिष्ठ रहती हैं। मेरे संयम को डिगाने वाली कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों नहीं आवे, मैं उनमें अविचलित रहना चाहता हूँ। जिस प्रकार धरती सारे कष्टों को सहते हुए भी महती सहनशील बनी रहती है, उसी प्रकार मैं भी परिषहों को सविवेक सहते हुए अपनी आत्म साधना को कष्ट-सहिष्णु बना लेता हूं। राग और द्वेष को लेश मात्र भी नहीं आने देकर मैं सांसारिकता के इन बीजों को समाप्त कर देना चाहता हूं। मेरी अभिलाषा है कि मैं समतामय बन जाऊं मेरे भाव, मेरी दृष्टि तथा मेरा सम्पूर्ण आचरण समता से ओत-प्रोत बन जाय।
___ मैं वीतराग देवों की आज्ञा की आराधना करते हुए जिस श्रद्धा से मैंने संयम अंगीकार किया, उससे भी अधिक श्रद्धा से मैं संयम का सम्यक् पालन करता ही चला जाऊं अपने सकल कर्मों का क्षय करता हुआ, रत्ल त्रय की आराधना करता हुआ और जीवन को स्व-पर हित में नियोजित करता हुआ आत्म विकास की महायात्रा में अग्रगामी बन जाऊं।
सिद्धान्तों का आंशिक पालन मैं भावना भाऊं कि जब तक उपरोक्त सिद्धान्तों का सर्वांशतः पालन करने में मैं समर्थ न बन जाऊं तब तक सिद्धान्तों का आंशिक पालन ही पूरी निष्ठा से करूं क्योंकि मैं जानता हूं कि देशविरति संयम ही सर्वविरती संयम में प्रतिफलित होता है—साधुत्व की आधारशिला श्रावकत्व की आराधना ही होती है। महासत्वसम्पन्न तीर्थंकरों के लिये साधुत्व को पाने के लिये श्रावक बनने की आवश्यकता नहीं रहती
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के सिद्धान्तों पर आधारित मेरे श्रावकत्व के अणु (छोटे) व्रत होते हैं, महाव्रत की अपेक्षा छोटे एकदेशीय त्याग रूप। मेरे अणुव्रत पांच, गुणव्रत तीन, शिक्षाव्रत चार कुल बारह व्रत होते हैं। पांच अणुव्रत निम्नानुसार हैं
(१) अहिंसा अणुव्रत (स्थूल प्राणातिपात का त्याग) : स्वशरीर में पीड़ाकारी, अपराधी तथा सापेक्ष निरपराधी के सिवाय शेष द्विन्द्रिय आदि त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा दो करण तीन योग याने मन, वचन, काया से न करना और न करवाना। इस अणुव्रत के पांच अतिचार हैं। वर्जित कार्य को करने का विचार करना अतिक्रम कहलाता है, व्रतभंग रूप कार्य पूर्ति के लिये साधन जुटाना व्यतिक्रम है तो व्रतभंग की पूरी तैयारी कर लेना अतिचार होता है। यह अतिचार भी तब तक है जब तक कि व्रतभंग नहीं किया है। अतः अतिचार उसको कहते हैं जहाँ व्रत की अपेक्षा रखते हुए कुछ अंश में व्रत का भंग किया जाय । व्रत की अपेक्षा न रखते हुए संकल्पपूर्वक व्रत भंग करना अनाचार होता है। अनाचार की आज्ञा नहीं है और अतिचार का प्रायश्चित्त किया जाता है। अहिंसा अणुव्रत के अतिचार पांच इस प्रकार कहे गये हैं (अ) बंध-द्विपद, चतुष्पद आदि को रस्सी आदि से अन्यायपूर्वक बांधना बंध है जो द्विपद-चतुष्पद के भेद से दो प्रकार का तो प्रत्येक अर्थ बंध व अनर्थ बंध के भेद से दो-दो प्रकार का होता है। अर्थ बंध भी दो प्रकार का है, सापेक्ष बंध तथा निरपेक्ष बंध । लापरवाही के साथ निर्दयतापूर्वक क्रोधवश गाढ़ा बधन बांध देना निरपेक्ष अर्थ बंध होता है। सापेक्ष अर्थ बंध श्रावक के लिये अतिचार नहीं है किन्तु अनर्थ बंध तथा निरपेक्ष अर्थ बंध उसके लिये अतिचार होते हैं अतः त्याज्य होते हैं। (ब) वध कोड़े आदि से मारना वध है। इसके भी अर्थ-अनर्थ, सापेक्ष-निरपेक्ष भेद होते हैं। अनर्थ एवं निरपेक्ष भेद अतिचार में शामिल
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