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समता अवधारणा में समा जाय- इसके लिए स्वयं आत्मा स्वयं की ज्ञाता बने । स्वस्वरूप से पूर्णतया परिचय पाने के पश्चात् ही ज्ञाता की अवस्था समुत्पन्न होती है। वह ज्ञाता अपनी आत्मा के मूल स्वरूप को भी पहिचान लेता है तो उसके वर्तमान कर्मावृत्त स्वरूप को भी जान लेता है। इस दृष्टि से वह सर्व आत्माओं के मूल स्वरूप को उसी भांति मानते हुए उनकी कर्मावृत्तता की भी पहिचान प्रारंभ करता है तथा प्रयास करता है कि वे आत्माएँ भी अपने वर्तमान स्वरूप को जानकर कर्मों को अनावृत्त करने की साधना की ओर गति करें। ऐसा आत्मीय सहयोग उसे सर्वात्माओं के साथ अनुराग भाव से जोड़ता है कि वे सब उसके साथ समान रूप से सम्बद्ध हैं ।
अपनी परिपक्कता की ओर बढ़ती हुई समता की यह अवधारणा तब आचरण में उतरती और व्यवहृत होती है जब साधक अपनी आत्मा का स्वयं दृष्टा भी बन जाता है। वह दृष्टा तब अपने कर्त्ता होने पर नियंत्रक लगाम लगा लेता है । वह करता है किन्तु साथ ही साथ देखता भी रहता है कि वह क्या कर रहा है, कैसा कर रहा है, जो कर रहा है वह कितना समतामय है तथा कितना समताहीन ? यह दृष्टि प्रतिक्षण सतर्क रहती है। इस कारण समता साधक की आत्मा जो कुछ भी करती है, वह अधिकाधिक समतामय होता है तथा समतामय होता जाता है।
यह दृष्टा भाव स्वयं की आत्मा को सतत जागृत रखता है कि वह किसी भी स्तर पर सर्वात्म - हितैषिता से विलग न हो। सारा संसार उसकी स्नेहमयी समता की छाया में आ जाता है।
ज्ञाता और दृष्टा बनकर जब साधक अपनी आत्मा की समता को साध लेता है तब वह तीसरे चरण पर प्रतिष्ठित बनता । वह होता है ध्याता का भाव । तब वह निरन्तर इस ध्यान में रहता है कि उसकी प्रेरणा अन्य सभी आत्माएँ भी समता के मार्ग पर अविचल बनें और आगे बढें । तब वह अनन्यदर्शी बन जाता है और समता की सर्व स्नेहमयी रस धारा में स्वयं भी अवगाहन करता है तथा अन्य आत्माओं को भी अवगाहन कराता है। आत्मा की अनन्यदर्शिता ही अनन्त आनन्द की अनन्त अनुभूति प्रदान करती है। जो अनन्यदर्शी है, वह अनन्य आनन्दी है और जो अनन्य आनन्दी है वह अनन्यदर्शी है—यह एक शाश्वत सिद्धान्त एवं शाश्वत स्थिति है ।
महावीर प्रभु ने अपने इस शाश्वत सिद्धान्त के माध्यम से उन्नतिकामी आत्माओं को प्रेरणा दी है कि वे निरन्तर आत्म-समीक्षण करें और यह जानें कि वे अपने ज्ञाता, दृष्टा एवं ध्याता भावों को विकसित बनाकर समता मार्ग पर निश्चल गति से अग्रगामी बन रही हैं अथवा मंथर गति से लक्ष्य को पाने का प्रयास कर रही हैं । यदि गति मंथर है तो अपनी समता साधना की उत्कृष्टता से उसे उग्र बनाना होगा तथा समता के उच्च शिखर पर आरूढ़ बनकर अनन्यदर्शी एवं अनन्य आनन्दी बनना होगा, क्योंकि वहां पहुंचकर ही सदा के लिए शाश्वत आनन्द का स्थायी रसास्वादन लिया जा सकता है। वही इस मानव जीवन का एवं कर्म मुक्ति का चरम ध्येय है ।
किन्तु समता के सर्वोच्च शिखर पर आत्मा को पहुँचायेगा कौन ? कोई अन्य नहीं पहुँचायेगा, स्वयं इसी आत्मा को अपने आत्म समीक्षण एवं समतामय आचरण के आधार पर वहां पहुँचना होगा। आत्मा तो स्वयं कर्त्ता है, वह किसी की आश्रित नहीं । इसकी जो विवशता जाहिर होती है वह इसकी कर्मावृत्तता के कारण है । किन्तु जब और जितनी यह आत्मा कर्मों से अनावृत्त होती जाती है, तब और उतनी उसकी तेजस्विता, कर्मठता एवं शक्ति सम्पन्नता भी अभिव्यक्त होती जाती है।
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