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में ले गये। मैं हर बात पर क्रोध करने लगा क्योंकि मुझमें अपने वर्चस्व व अधिकारों का मान समा गया था। इसके साथ ही अपने उस झूठे मान को बनाये रखने के लिये मैं कपट पूर्ण चेष्टाएं करके माया का आचरण करने लगा। सांसारिक उपलब्धियों में इन दुष्टतापूर्ण वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों के सहारे मुझे ज्यों-ज्यों लाभ होने लगा, त्यों-त्यों मेरा लोभ भी बढ़ता गया । लोभ बढ़ता और मैं अधिकाधिक लाभ पाने की लालसा से पापपूर्ण कार्यों में अधिकाधिक दुष्टता से जुट पड़ता। मेरी संज्ञा - शून्यता लालसाओं की भड़कती हुई उस आग में घी का काम करती ।
तब मन के गहरे कोनों में उभरती थी इस संसार में मुझे डुबोये रखने वाली मूल कुवृत्तियाँराग और द्वेष । जो मेरे मनोज्ञ सम्बन्ध और पदार्थ होते, उनसे मैं गाढ़े राग-भाव से जुड़ जाता। तभी प्रकट होती उसकी प्रतिक्रिया रूप द्वेष की दुर्भावना । जो सम्बन्ध और पदार्थ मेरे लिये अमनोज्ञ अनचाहे होते उनके प्रति मैं द्वेष से भर उठता और उन लोगों के प्रति भी जो मेरी मनोज्ञता - लालसा याने कि चाहत का विरोध करते, उसमें बाधा डालते अथवा मेरे वर्चस्व के विरुद्ध सामने खड़े होते । राग और द्वेष के भावों में मैं इतना आन्दोलित और कम्पायमान हो जाता कि एक पल भी मैं इन वृत्तियों से विलग नही हो पाता। हर समय मुझे यही सोच लगा रहता कि किस प्रकार मैं अपने चहेतों (व्यक्ति सम्बन्ध या पदार्थ) की रखवाली करूँ और कैसे अपने विरोधियों का सर्वनाश कर डालूं । यही घात - प्रतिघात अहर्निश मेरे मन-मस्तिष्क में चलता रहता और उसके मारक तनावों को भोगते हुए भी मैं राग-द्वेष की वृत्तियों को छोड़ नहीं पाता तथा उनसे संचालित होने वाली प्रवृत्तियों के दबाव को मिटा नहीं पाता ।
मैं अपनी ऐसी कलंकित मनःस्थिति में कलह के अलावा और क्या करता ? रातदिन अपनी अशुभ वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में फंसा रह कर सब ओर कलह और क्लेश में लगा रहता । अपने स्वार्थों पर पड़ने वाली जरा सी चोट से भी मैं बिलबिला उठता और दूर के ही लोगों से नहीं बल्कि अपने 'खून के रिश्तों से भी भयंकर कलह करता । मेरे स्वार्थों की घृणित पूर्ति में आड़े आने वाले लोगों पर झूठे कलंक (अभ्याख्यान) लगाता, दूसरों की चुगली ( पैशुन्य ) करता, उनकी छल छद्म से भरी निन्दा ( पर परिवाद) करता और अपनी पांचों इन्द्रियों के तेवीसों विषयों की मनोज्ञता से खुश होता रहता तो उनकी अमनोज्ञता से कुपित बना रति और अरति पाप डूबा रहता। मुझे सुरीला संगीत सुनने को मिलता तो खुशी से चहक उठता लेकिन कड़वी आवाज सुनकर अप्रसन्न हो जाता। आंखों से काम-भोगों को उकसाने वाले सुन्दर दृश्य दिखाई पड़ते तो मैं मुदित हो जाता लेकिन कुरूपता को देखकर भड़क जाता । सुगंधियों की साँसें लेकर मैं आनन्द मानता तो दुर्गंध से नाक-भौं सिकोड़ लेता । रस भरे पदार्थों को मैं चटखारे ले लेकर खाता तो अस्वाद पदार्थों को सामने पाकर क्रोध से भर उठता। इसी प्रकार स्पर्श सुख के हिंडोले में झूलते हुए मैं स्वर्गीय सुखों की मस्ती मानता तो वैसी सुख सामग्री न मिलने अथवा छिन जाने पर मैं सन्ताप और विक्षोभ से भर उठता । रति-अरति के इस पाप से मैं भ्रमित बना रहता और धर्म में कोई रुचि नहीं लेता । अपनी रति- अरति के स्वार्थों में कपट सहित झूठ (माया मृषावाद) बोलने की जैसे मेरी आदत ही बन गई थी । और मेरी इस निकृष्टता का मूल कारण था मिथ्या - दर्शन शल्य याने मन, वचन एवं कर्म का मिथ्यात्व जो मुझे कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म के कुचक्रों में उलझाये रखता था ।
आज मुझे मेरी उन कुवृत्तियों पर कठोर पश्चात्ताप होता है कि इन कुचक्रों के कुफल-स्वरूप मैं उस तरह के व्यवसाय करता था जो व्यक्ति-हित एवं समाज व्यवस्था के नाते
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