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चेतना की प्रबुद्धता व जागृति मैं जानता हूँ कि संसार के अनादिकालीन भटकाव में मेरी चेतना अज्ञान के अंधकार में ठोकरें खाती रही है, पदार्थ मोह की मदिरा से उन्मत्त बनी निद्राग्रस्त हुई है तो अपना आपा खोकर मिथ्याचरण की गन्दगी में मुंह लगाती फिरी है। मेरी प्रबुद्धता इतनी मद्धिम हो गई थी कि जैसे लौ जल ही नहीं रही हो क्योंकि मैं अपने निजत्व को ही विसार गया था। मेरी चेतना पर-पदार्थों के प्रगाढ़ मोह में फंसी तरह-तरह के पाप कार्यों में ही लगी रही। जब मेरी प्रबुद्धता ही मन्दतम थी तो भला जागृति कहां से उभरती ?
यह तो लगातार अंधकार में ठोकरें खा-खा कर मेरा क्षत-विक्षत हो जाना हुआ, मदिरा की तीक्ष्णता में खुमारी उतरने के बाद होश का आना हुआ और गंदगी की भ्रष्टता से हद पर निकलना हुआ कि मैं चौंका, जागा और अपनी विदशा को देखने लगा। अपने अपरूप को देखता रहा-देखता रहा। समझ नहीं सका कि यह मैंने क्या कर दिया था ? क्यों कर दिया था, और अब क्या करूँ ? किंकर्तव्यविमूढ़ता मुझे देर तक घेरे रही। मैं सोचता रहा मैं सोचता रहा।
इस सोच से मेरी चेतना ने बोध पाया तो जागरण भी पाया। और अपनी उसी प्रबुद्धता एवं जागृति में उसने अपना कठिन कार्य भी सम्हाल लिया क्योंकि, वह कड़ी थी-अपनी स्वामिनी एवं अपने सेवक के मन वचन काया के बीच की। इन सेवकों ने उसे भी पथभ्रष्ट कर दिया था और उनकी पथभ्रष्टता की कालिख के छींटे तो अपनी स्वामिनी पर लगने ही थे। स्वामिनी भी मलग्रस्त हो गई। अब उसी का कठिन कार्य था कि एक ओर वह अपने सेवकों की उदंडता को रोके और उन्हें अपनी स्वामिनी की सत्सेवा में नियोजित करे तथा स्वयं स्वामिनी को भी उसके प्रबुद्ध एवं सदा जागृत स्वरूप का भान दिलावे । मेरी चेतना ने तब कमर कस ली और मन, वाणी तथा कर्म की लगाम अपने हाथ में पकड़ ली। यों कहिये मेरी चेतना चाबुक बन गई, अपने को अपनी स्वामिनी के हाथों में सौंप कर। यह चाबुक था मेरे मन, वाणी और कर्म को मिथ्या श्रद्धा, मिथ्या ज्ञान एवं मिथ्याचरण से दूर हटाने का और उन्हें सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् आचरण की दिशा में ले जाने का उनको पाप पंक से निकाल कर आध्यात्मिकता के खुले मैदान और खुले वातावरण में गमन कराने का। यह चाबुक चोट करके ही रह जाने वाला नहीं था, बल्कि चोट पर मरहम लगाते हुए इच्छापूर्वक आगे बढ़ने की जागृति देने वाला था। मेरे मन, वाणी और कर्म ने चेतना के चाबुक की चोट खाई तो उन्होंने ऊपर निहारा -अपनी कर्तृशक्ति के मुख पर उभरते हुए तेज को देखा तो वे भी स्तब्ध रहे, पश्चाताप में डूबे और संकल्प के साथ सन्मार्ग पर चलने को उद्धत हो गये।
यह है मेरे 'मैं' के जागरण की कथा। मेरे 'मैं' का हाथ तब कस गया। चाबुक को उसने मजबूती से पकड़ा और एक नजर अपने मन, वचन और कर्म पर घुमाई 'मैं' ने एक नजर उस स्थान पर भी घुमाई जहाँ से उसे तीव्र गति से निकल जाना चाहिये था क्योंकि निकलने में तब तनिक भी विलम्ब करना पुनः सुशुप्ति में गिरने का कारण हो सकता था। अभी-अभी उस विकारों से भरे स्थान के प्रति जुगुप्सा जागी थी और वहाँ से तुरन्त निकल जाने की तत्परता बनी थी, वह कहीं निरर्थक विलम्ब के कारण समाप्त न हो जाय। कहीं ऐसा न हो कि संसार के ऐन्द्रजालिक दृश्य उसे फिर से व्यामोहित बनादे और उसका चाबुक उसके हाथ से फिर छूटकर उसके मन, वचन और कर्म
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