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दूसरा सूत्र
मैं बुद्ध ही नहीं, प्रबुद्ध हूँ, बुद्धि के सर्वोच्च विकास को साध लेने में सक्षम हूं। मेरी बुद्धि मेरा ज्ञान दीपक की लौ के समान सदैव प्रदीप्त रहता है। अपनी लौ ही के कारण दीपक सभी लोगों के मुंह से दीपक कहलाता है। लौ न हो तो वह सिर्फ मिट्ठी का दीवट हो जाता है।
वैसे ही जो लौ है, वह मैं हूं क्योंकि मैं चैतन्य देव हूं, आत्मा हूं। और जो मिट्टी का दीवट है, वह मेरा शरीर है। शरीर में जब तक आत्मा है तभी तक जीवन है। आत्माविहीन शरीर त्याज्य हो जाता है। जब तक दीपक की लौ जलती रहती है, लोग उसे सहेज कर रखते हैं, कारण, वह सबको प्रकाश देता है, अंधकार में मार्ग दिखाता है। इस मानव जीवन का भी यही उद्देश्य है कि वह स्वयं प्रकाशयुक्त बने तो अपना प्रकाश सब ओर भी फैलावे। जैसे दीपक की लौ कभी तेजोमय रहती है तो कभी तेल की कमी से मद्धिम भी हो जाती है, किन्तु वह जलती रहती है। जलते रहना यही जीवन का लक्षण है। अपने पुरुषार्थ की तीव्रता अथवा मंदता से जीवन की ज्योति तेजोमय अथवा मद्धिम होती रहती है किन्तु उसका अस्तित्व निरन्तर बना रहता है। लौ जलती रहती है, जीवन प्रकाशित होता रहता है अपने ज्ञान के अमित प्रसार को अभिवृद्ध बनाते हुए। यह जलना है अपने लिये भी एवं औरों के लिये भी, क्योंकि प्रकाश पर किसी का एकाधिकार नहीं होता। प्रकाश अंधकारग्रस्त सभी लोगों के लिये होता है। उसी प्रकार यह मानव जीवन भी संसार की समस्त आत्माओं में एकरूपता लाने के लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्ध है। मुझे इस प्रकाश के मर्म का पूरा ज्ञान है, बोध है। तभी तो मैं प्रबुद्ध हूं।
क्योंकि मैं प्रबुद्ध हूँ, इसी कारण सदा जागृत हूँ। सम्यक् ज्ञान मिथ्यात्व की नींद में कभी सोता नहीं, सदा जागता रहता है। प्रतिपल प्रकाश में नहाता रहता है। ज्ञान के प्रकाश में मेरा 'मैं' सदा जागृत रहता है, मेरा लक्ष्य हर समय मेरे सामने होता है और मैं सजगतापूर्वक अपने लक्ष्य तक पहुँच जाने के लिये प्रयासरत रहता हूं। मुझे प्रबोध भी प्राप्त है और जागरण भी क्योंकि एक प्रबुद्ध कभी भी सुशुप्त नहीं रह सकता है। जो जानता है, वह जागता है और जो जागता है, वह उठ खड़ा होता है। जो उठ खड़ा होता है, वह चल पड़ता है और वह चलता है वीतराग देवों द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर) अपने प्रबोध के कारण वह भटकता नहीं है—उसके पांव डगमगाते नहीं है। वह निश्चल गति से अपने मार्ग पर आगे बढ़ता जाता है—अपनी बढ़ती हुई उमंग और अपने बढ़ते हुए उत्साह के साथ।
मैं प्रबुद्ध हूँ, सदा जागृत हूँ इसीलिये मैं अपने स्वरूप को पहिचानता हूं, अपने लक्ष्य को जानता हूँ और तदनुसार अपनी गति को आंकता हूँ। मेरी चेतना की प्रबुद्धता तथा उसकी सतत जागृति ही आत्म-विकास की मेरी महायात्रा की सम्पूर्ति -सूचिकाएं बन जाती हैं।