________________
रंगों को फैलते हुए देखता है, अपने मन-मस्तिष्क को भी उन्हीं रंगों से रंग लेता है। वे रंग होते हैं राग
और द्वेष के रंग जो अज्ञान, आसक्ति एवं ममत्व की तरफ खींचते हैं, क्योंकि इन्हीं रंगों से जन्म लेता है इच्छाओं का वह इन्द्रधनुष—जो मायावी होता है तथा जिसके भ्रमभरे रंगों को पकड़ने के लिये मनुष्य बचपन से लेकर मृत्यु तक का अपना सारा अमूल्य समय बरबाद कर देता है।
मैंने देखा है कि इन्द्रधनुष के इन्हीं मायावी रंगों के लिये मनुष्य के मन में राग जागता है। तब वह उसके गाढ़ेपन के साथ उन रंगों को याने कि नश्वर जड़ पदार्थों को प्राप्त कर लेने के लिये अपनी दुर्लभ प्राप्तियों को दाव पर लगा देता है। इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त होती हैं और मनुष्य अपनी प्राप्त शक्तियों ता दुरुपयोग करके भी जब किसी इच्छा की ज्योंही पूर्ति कर लेता है, त्योंही दूसरी इच्छा उसके सामने आ खड़ी होती है और वह इच्छा एक नहीं, अनेक रूपिणी होती है। एक इच्छा पूरी की जाय और कई अपूर्ण इच्छाएँ सामने आकर खड़ी हो जाय—फिर उनकी पूर्ति के लिये मनुष्य संघर्ष करता रहे और संघर्ष करते हुए पूरा जीवन भी खपा दे तब भी क्या वह अपनी समस्त इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा? फिर भी राग-द्वेष की प्रबलता ऐसी होती है कि कई मनुष्य पूरा जीवन खपा कर भी शिक्षा नहीं लेते।
राग और द्वेष के वशीभूत होकर जब मूर्छाग्रस्त मनुष्य वस्तुओं के संग्रह में प्रवृत्त होते हैं तो उनकी वितृष्णा एक समभावी को देखते नहीं बनती। वे वीतराग देव के उपदेशों को सर्वथा भुला देते हैं कि किसी वस्तु पर मूर्छा-ममत्व और आसक्ति का होना ही वास्तव में परिग्रह है। ऐसे भाव परिग्रह के परिणाम स्वरूप द्रव्य परिग्रह की तनिक सी प्राप्ति उस मनुष्य की आसक्ति को मदिरा की तरह बहुत बढ़ा देती है। जैसे शराब पीना शुरू करने वाला आदमी नित प्रति शराब की मात्रा बढ़ाते रहने पर भी कभी तृप्त नहीं होता, उसी तरह भाव परिग्रह से ग्रस्त मनुष्य आकाश के समान अनन्त इच्छाओं के दौरादौर में वस्तुओं का महा-संग्रह कर लेने के बाद भी तप्त नहीं होता। 'और चाहिये' की उसकी धुन खत्म ही नहीं होती है। इसी कारण उपदेश की धारा प्रवाहित हुई है कि जो व्यक्ति थोडी या अधिक वस्त परिग्रह की बद्धि से रखता है अथवा दूसरे को परिग्रह रखने की अनुज्ञा देता है, वह दुःखों से छुटकारा नहीं पाता है। अनासक्ति भाव से वस्त्र-पात्रादि रखने में परिग्रह नहीं बतलाया गया है किन्तु यदि इन वस्त्र-पात्रादि में भी साधु का आसक्ति भाव हो जाता है, तो वे उस साधु के लिये परिग्रह रूप हो जाते हैं। चाहे साधु हो या गृहस्थ-जब परिग्रह आता है तो अन्य अवगुण भी उसके साथ आने लगते हैं। सम्पूर्ण संसार में सभी जीवों के लिये परिग्रह जैसा दूसरा बंधन नहीं है। परिग्रह-बुद्धि से ही अनन्त इच्छाएँ और वासनाएँ भड़कती रहती हैं और मनुष्य को राग-द्वेष पूर्ण दावानल में भस्म होने के लिये मजबूर करती रहती हैं।
तृप्ति व अतृप्ति की कुंठाएँ कामभोगों की अनन्त इच्छाओं की पूर्ति मनुष्य के एक जन्म में तो क्या अनन्त जन्मों में भी संभव नहीं है— ऐसा मेरा स्वानुभव का विश्वास है। इस कारण इस जन्म में कोई कितना भी बड़ा वस्तु-संग्रह कर ले तब भी अतृप्ति तो उसके मन-मानस में छाई हुई रहेगी ही। जो इच्छाएँ पूरी हो गई हैं अथवा जिन इच्छाओं के अनुसार वस्तुओं का संयोग मिल गया है—आश्चर्य की वस्तुस्थिति यही है कि उन प्राप्तियों से तृप्ति नहीं मिलती, कारण प्राप्त तृप्ति से अतृप्ति की काली छाया इतनी बड़ी होती है कि उसमें तृप्ति का अस्तित्व ही विलुप्त हो जाता है। फिर भी इन तृप्तियों और
७६