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(५) "अन्नमय प्राणमय मनोमय विज्ञानमय-मानन्दमय
मात्मा मे शुध्यन्तां ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूषासं स्वाहा ।। ६६ ॥
"नारायणोपनिषद्” पृ० १४६ . अर्थात्-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय, मेरी आत्मा विशुद्ध हो, मैं ज्योति स्वरूप बनूं, रजोहीन और पापहीन बनूं।
‘याभिरादित्यस्तपति रश्मिभि स्ताभिः पर्जन्यो वर्षति, पर्जन्येनौषधि वनस्पतयः प्रयायन्त, औषधिवनस्पतिभिरन्नं भवत्यन्नेन प्राणाः प्राणैर्वलं वलेन तपस्तपसा श्रद्धा श्रद्धया मेधा मेधया मनीषा मनीषया मनो मनसा शान्तिः शान्त्या चित्तं चित्तेन स्मृतिः म्मृत्या स्मारं स्मारेण विज्ञानं विज्ञानेनात्मानं वेदयति तस्मादन्नं ददन (त् ) सर्वाण्येतानि ददाति” ।
... "नारायणोपनिषद्' पृ० १५६ अर्थात्-जिन किरणों से सूर्य तपता है, उन किरणों से मेघ वर्षता है । मेघवृष्टि से औषधि वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं ।
औषधि वनस्पतियों में अन्न उत्पन्न होता है, ऋन से प्राण बनते हैं । प्राणों से बल, बल से तप, तप से श्रद्धा, श्रद्धा से मेधा, मेधा से मनीषा, मनीषा से मन: मन से शान्ति, शान्ति से चित्त, चित्त से स्मृति, स्मृति से स्मार, स्मार से विज्ञान, और विज्ञान से मात्मा, भास्मा को जानता है। इसलिये अन्न को देने वाला सब को देता है।