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( २३ ) इन निगमों के पढ़नेवाले श्रावक बार-बार "मत मार मत मार" इस अथ को सूचित करने वाला"मा हन मा हन"पद बोलने के कारण वे माहन नाम से प्रसिद्ध हो गये थे, जो बाद में जैन ब्राह्मण कहलाये। .
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माहनों की संख्या प्रतिदिन बढ़ती जाती थी, बिना परिश्रम भोजन वस्त्राच्छादन की प्राप्ति होती देख कर अनेक मनुष्य माहन शालाओं में दाखिल होते गये। भोजन बनाने वालों ने शिकायत की कि भोजन करने वालों की संख्या का कोई ठिकाना नहीं रहता, इस पर राजा ने माहनों की वृद्धि पर नियन्त्रण करने के लिये उनकी परीक्षा का क्रम रक्खा, दाखिल होते समय उनकी परीक्षा ली जाने लगी, और परीक्षा में जो वास्तविक धर्मार्थी श्रावक पाये जाते वे ही माहनशाला में दाखिल किये जाते थे,
और उनकी पहचान के लिये बांये कन्धे से दाहिने उदर भाग तक यज्ञोपवीत की तरह काकणीरत्न से तीन रेखा खींचली जाती थी। जिसके शरीर पर यह चिन्ह पाया जाता वही माहन माना जाता और माहनशाला में रहने का अधिकार पाता।
- भरत के उत्तराधिकारी आदित्ययशा आदि माहनों को सुवर्ण का यज्ञोपवीत देते थे। भरत के अष्टम उत्तराधिकारी राजा दण्ड वीर्य ने माहनों को रजत का यज्ञोपवीत दिया, और उसके बाद के राजाओं ने सूत का यज्ञोपवीत देना शुरू किया। न माहनों की यह परम्परा और उनके आर्ववेद बहुत काल तक चलते रहे।