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ही किया और सदा के लिये गृहस्थ धर्मियों को इसी प्रकार भोजन पानी वस्त्र आदि देकर लाभ लेने का निश्चय किया ।
- उन्होंने एक बड़ा-सा मकान धर्मार्थी श्रावकों के लिये खुलवाया
और वहाँ रहने खाने-पीने की सदा के लिये व्यवस्था की । वहाँ रहने वालों को यह सूचित किया कि जब-जब मुझे जाते-आते देखो, तब तब से उपदेशिक शब्द मेरे कानों में पहुँचायो कि उन्हें सुन कर मैं सावधान हो जाऊँ। राजा की इस सूचना के अनुसार वे श्रावक हर समय उन्हें जाते-आते देखकर कहते "जितो भवान्" "वर्द्धते भयन्" तस्मान्मा हुन मा हन" इसका मतलब भरत सोचता मैं किस से जीता गया, और मुझ पर किस से भय बढ रहा है, उसके मन का समाधान स्वयं हो जाता था कि क्रोध लोभ आदि शत्रुओं से मैं जीता गया हूँ, और मुझ पर संसार भ्रमण का भय बढ़ रहा है, इसलिये मुझे प्राणि हिंसा नहीं करनी चाहिये।
जो गृहस्थ श्रावक अपने में साधु होने की योग्यता नहीं पाते और संसारिक प्रवृत्तियों में जिनको रस नहीं होता, वे सभी भरत-स्थापित इस माहनशाला में रहते और भरत निर्मापित मार्यवेदों का अध्ययन करते थे। उन वेदों में मुख्य वस्तु तीर्थकर मादि महापुरुषों की स्तुतियां और गृहस्थ धर्म का निरूपण होता था, पिथले अन अन्धकारों में इन्ही नियमों का पार्यवेद इस नाम सें वर्णन किया है। ..... . ... ... ... .