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- ( २१ ) राजा बने, मानव-गण को व्यवस्थित रखने के लिए राजनीति का निर्माण हुआ।
- भरत चक्रवर्ती की माणशाला भगवान ऋषभदेव प्रव्रज्या लेकर देश भ्रमण करते और तपस्या करते हुए केवलज्ञानी हुए। कालान्तर में वे भरत की । राजधानी विनीता से कुछ योजनों की दूरी पर रहे. हुए अष्टापद : पर्वत पर पधारे। भरत को उनके आगमन की पर्वत-पाल ने बधाई दी । भरत बड़े विस्तार के साथ. उनको बन्दन करने गया, साथ में गाडियों-बन्द पका-पकाया भोजन भी ले गया था, इस विचार से कि इसका भगवान् के मुनिगण को दान करेंगे। बन्दन धर्म श्रवण के उपरान्त भरत ने मुनिगण को निमन्त्रण दिया कि निर्दोष आहार तैयार है, कृपा कर उसे ग्रहण कीजिए। भगगन ने "राज पिण्ड अकल्प्य हे" कह कर भरत की प्रार्थना. को अस्वीकृत कर दिया। भरत बहुत निराश हुए, इस पर इन्द्र ने कहा राजेन्द्र ! निर्बन्ध भमय अभिषिक्त राजा के घर से भोजन मात्र आदि पदार्थों को प्राहमा नहीं करते। तुम अपने भारतवर्ष भर में श्रमणों को प्रवनदान देकर लाभ ले सकते हो। इस पर से भारत ने अपने अधिकार के भू भाग में बिकाने ने की बाल के दी, और इन्द्र से मिलादे हुए बोजन की स्या की जाय। इन्द्राका सापक क्षय श्रावकों को जिमाइये और भक्ति का लाभ जीविको भैरत में बैसा