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(४४६ ) - "देश भर में मांसाहारी नहीं है। न ही कोई मादक द्रव्यों का उपयोग करता है। प्याज और लहसुन नहीं खाते । केवल चाण्डात लोग ही इस नियम का उल्लंघन करते हैं। वे सब वस्ती के बाहर रहते हैं और मस्पृश्य कहलाते हैं। इमको कोई छूना भी नहीं नगर में प्रवेश करते समय ये सकसी से कुछ संकेत और भावाज करते है। इसको सुनकर नागरिक हट जाते हैं। इस देश के लोग सूभर नहीं पालते । बाजार में मांस और मादक द्रव्यों की दुकानें भी नहीं है। व्यापार के हेतु यहां के निवासी मोदी का व्यवहार करते है। केवल चाण्डाल मात्र ही मांस मछली मारते और शिकार करते हैं।"
(फाहियान पृ० २६-२७) - फाहियान के उपर्युक्त विवरण से यह प्रमाणित होता है कि ईशा की चतुर्थ शताब्दी के अन्त तक उत्तर भारत वर्ष अन्न भोजी बना रहा है। इस आर्यभूमि की यह परिस्थिति तात्कालिक ही नहीं थी बल्कि वेदकाल से चली आ रही थी जो बौद्ध लेखक यह मानते हैं कि बुद्ध के समय में सरे बाजारों में गोमांस बिकता था उनके इस कथन का फाहियान का उक्त कथन एक प्रामाणिक उत्सर। जिन देशों को जैन सूत्रकारों ने आर्य देश यह नाम दिया है, और वैविक अन्धकारों ने कार्यभूमि कह कहकर उनका बहुमान किया है, उन देशों में न कभी खुले आम मांस विकता था, न मदिरा पी जाती थी। मांस मदिरा भक्षण तो क्या ? उस समय के माय लहसुन प्याज सपा नहीं खाते थे। मांसादि अभक्ष्य पदार्थों का उहीं प्रदेशों में अधिक व्यवहार होता था, जो अमार्य कहलाते