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थे और बौद्ध भिक्षुओं के बिहार क्षेत्र थे। जब से भारत के बांहर के देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ तब से तो मांस मत्स्य लहसुन प्याज आदि खाना भिक्षुओं के लिये एक साधारण व्यषहार सा हो गया था, और उन विदेशी भिक्षुओं के समागम से भारतीय बौद्धों के भोजन में भी इन अभक्ष्य पदार्थों की मात्रा अमर्यादित हो गई थी। ब्राह्मण तथा जैन सम्प्रदायों को मानने वाले विद्वान् बौद्धों की इस भोजन सम्बन्धी भ्रष्टता की कठोर टीकायें करते थे । भारत की उच्च जातियां भी इस भ्रष्टता से ऊब कर बौद्ध धर्म से विमुख हो रही थी। फिर भी बौद्ध भिक्षुगण मांस छोड़ने को तैयार नहीं था, इतना ही नहीं बल्कि तत्कालीन विद्वान् बौद्ध आचार्य तर्क शास्त्र के बल से मांस भक्षण को निर्दोष साबित करने के लिये कटिबद्ध रहते थे । इस बात का सूचन आचार्य हरिभद्रसूरी के निम्न लिखित श्लोकों से मिलता है।
भचणीयं सतां मांस, प्राण्यङ्गत्वेन हेतुना । मोदनादिवदित्येवं कचिदाहातितार्किकः ॥१॥ शास्त्रे चाप्तेन वोऽप्रमेवनिषिद्ध यत्नतो ननु । लङ्कावतारवादौ, ततोऽनेन न किञ्चन ॥२॥
अर्थः- मांस प्राण्यङ्ग होने के कारण अच्छे मनुष्य के लिये खाने योग्य भोजन है, जैसे श्रोदन । वह अतितार्किक कहता है ।
१ – यह सूचन बौद्ध प्राचार्य धर्मकीर्ति के लिये होना चाहिए, क्योंकि इन्हीं हरिभद्रसूरी ने न्याय के ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर धर्मकीर्ति का इसी प्रकार से उल्लेख और लण्डन किया है वे