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. ..( ४२४ ) स्थित प्रदेशों में रहा करते थे । सर्व प्रथम उन्होंने बालारकालाम तथा उद्धक रामपुत्त नामक संन्यासियों के पास रहकर उनके सम्प्रदाय की कुछ बातें सीखी बाद में वे राजगृह गये और उरुबेल नदी के प्रदेश में तपस्या शुरु की । प्रथम निम्रन्थ सम्प्रदाय में प्रचलित अनेक तपस्याओं का आराधन किया, फिर संन्यासियों के सम्प्रदाय में प्रचलित तपस्याओं की तरफ झुके और 'विविध प्रकार के तापस सम्प्रदायों का भी आराधन किया। इन सभी बातों का उन्होंने "मझिम निकाय" के "महासीह नाद सुत्त' में वर्णन किया है। जिस का कुछ भाग नीचे दिया जाता है। पाठकगण देखेंगे कि महात्माकुंद ने प्रारम्भ में कैसी कष्टकारिणी साधनायें की थीं।
। “तत्रस्सु मे इदं सारिपुत्त तपस्सिताय होती अचेलको होमि मुत्ताचरो हत्थापलेखनो न एहि भदन्तिको न तिठ्ठ भदन्तिको, नाभिहंटं, न उहिस्सकट में निमन्तणं सादियामि, सो न कुम्भीमुखा पतिगण्हाभि न कलोपिमुखा पति गएहामि, न एलक मन्तरं न मुसलमन्तरं, न द्विग्न मुखमानानं, न गम्भिनिया, न पायमानाय, न पुरिसन्तर गताय, न संकित्तीसु, नं यत्थ सा उपट्टितो होती, न यस्थ मक्खिका सण्डसण्ड चारिणी, न मच्छं न मंसं न सुरं न मेरयं न थुसोदकं पिबामि । सो एकागारिको वा होमि एकालोपिको, 'द्वगिरिको वा होमि द्वालीपिको,....."सत्तागारिको वा होमि 'सचालीपिको। एकिस्सीपि दित्तिया यापेमि, द्वीहि पि दत्तीहि "पपिमि... सत्तहि पि दत्तीहि यापेमि । एकाहिकं पि आहार