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( ४२५ ) पाहारेमि, द्वीहिकं पि आहरं आहारेमि,..."सत्ताहिक पि आहार श्राहारेमि । इति एपल्यं अद्धमासिकं मि परियायभत्त भोजनानुयोग मनुयुत्तो बिहराभि।
"मज्झिमनिकाय" पृ० ३६-३७ अर्थ:-हे सारिपुत्त ! वहां पर इस प्रकार मेरी तपस्या होती थी। लोक लज्जा को छोड़कर हाथ में भोजन करने वाला मैं अचलेक हुआ, न भदन्त ! आओ यह कहने पर जाता, ठहरो यह कहने पर ठहरता, न सामने लाया हुश्रा भोजन खाता, न किसी का निमन्त्रित आहार लेता, न कुम्भीमुख से (जिसमें पकाया हो उसमें से ) लेता, न कलोपो से ओखली में से लाया हुआ लेता, • न देहली अन्दर से, न मुसल के अन्दर से 'आहार लेता, न
भोजन करते हुए दो में से एक के हाथ से,..न गर्मिणी के हाथ से, न बच्चे को दूध पिलाती हुई स्त्री के हाथ से, न पुरुष के साथ खड़ी स्त्री के हाथ से, न मेले या यात्रा के निमित तैयार किया. हुआ, न कुत्ता खड़ा हो वहाँ से, न जहां मक्खियां भिनभिनाती 'हाँ वहां से आहार लेता था, न मत्स्य, न मांस भोजन लेता, न *सुरा, न मैरेय, न तुषोदक आदि मानक पानी पीता। कभी एक घर
से भिक्षा लेने का अभिग्रह करता, और वहां से एक क्रवल जितना - श्राहार लेता, कभी दो घर का, और तीन कवल प्रमाण प्राहार कभीचार घर का और चार कबल प्रमाण पाझर कभी पांच घर का और पांच कपल प्रमाण याहार, और : सातः घर का " अभिग्रह करता और सात कवल प्रमाण माहारा लेता।
१-जितजे घर जाने का अभिग्रह लिया जाता, उतते ही घरों में जा - सकते थे, और प्रत्येक घर से एक एक कवल पाहार..लेते एक घर